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गाथा-३०
डाले तो दाल का और शक्कर डाले तो शक्कर का (नाम लिखते हैं)। इसी प्रकार माल आत्मा अखण्डानन्द प्रभु की श्रद्धा-ज्ञान और चारित्र का माल हो तो साथ में व्यवहार व्रतादि के विकल्प को थैली-वारदान कहा जाता है। आहा...हा... ! ए... देवानुप्रिया !
मुमुक्षु – इसमें तो शर्त रखी है।
उत्तर – कहा न, शर्त रखी है न ! उपादान को ऐसा निमित्त हो तो मुक्ति पावे । शुद्ध उपादान की वृद्धि करके.... ऐसा। समझ में आया? उसका कारण है। यह रखा है कि जहाँ आगे आत्मानुभव तो चौथे-पाँचवें में भी होता है, परन्तु यह विशेष अनुभव, स्थिरता है, वहाँ ऐसे विकल्प होते हैं, वहाँ स्थिरता विशेष (होती है), यह बताना है। समझ में आया? वरना सम्यग्दर्शन चौथे गुणस्थान में भी आत्मानुभव होता है परन्तु जहाँ व्रत, नियम के परिणाम हैं, उन्हें तो स्थिरता-अनुभव बहुत होता है, ऐसे बहुत को वजन देने के लिए उसके साथ व्रतसहित कहा गया है। समझ में आया? आहा...हा...! यह जोर देते हैं।
__ जहाँ आत्मा अपने पन्थ में अन्दर पड़ा, शुद्ध भगवान आत्मा के अन्तर मार्ग में चढ़ा परन्तु उस मार्ग में चढ़ने पर भी जहाँ तक उसे व्रत के परिणाम, जो विकल्प चाहिए ऐसी भूमिका के योग्य स्थिरता नहीं हुई.... समझ में आया? .....वहाँ तक उसे उग्र आचरणरूपी साधुपना नहीं होता और वह उग्र आचरण जहाँ होता है, वहाँ ऐसे विकल्प होते हैं । ऐसी बात सिद्ध करते हैं। आहा...हा...! समझ में आया? आहा...हा...! ऐसा मार्ग वह कैसा यह? ऐसा वीतराग का मार्ग होगा? हैं ? यह तो अभी तक सुना कि रात्रि भोजन नहीं करना, रोटियाँ नहीं खाना, अष्टमी-चतुर्दशी को उपवास करना, कन्दमूल नहीं खाना, आलू नहीं खाना, शकरकन्द नहीं खाना.... लो ! ऐसी बात एक-एक बात ऐसी? यह पौन घण्टा होने आया, ए... शशीभाई ! हैं?
मुमुक्षु - भगवान ऐसा कहते हैं।
उत्तर – भगवान ऐसा कहते है, देखो! यह कहते हैं, देखो ! जिणणाहह वुत्तु है न? देखो! इसमें है। सिद्ध सुहु लहु पावइ इउ जिणणाहह वुत्तु ऐसा जिनेन्द्र का कथन है। है ? ३० में, इसलिए तो आचार्य शब्द डालते जाते हैं कि जिनेन्द्रदेव वीतराग परमेश्वर त्रिलोकनाथ, सौ इन्द्र से पूजनीय, समवसरण के नायक... समझ में आया?.... लाखों