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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
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विकल्प-व्यवहार होते हैं तो क्रम-क्रम से सब व्यवहार छोड़कर, अपने शुद्ध स्वरूप को, सिद्ध-सुख को प्राप्त करेगा। समझ में आया ?
यह सब कीमत जाती है आत्मा । अब, वह आत्मा कैसा ? उसका इसे पता नहीं पड़ता। जो महिमा करने योग्य चैतन्यरत्न, वह इसे कुछ नहीं । यह देह - वाणी की क्रिया और दया-दान के परिणाम, जो कुछ महिमा करने योग्य नहीं हैं... आहा... हा... ! उनकी इसे महिमा और उनकी इसे महिमा... महिमा परन्तु भगवान आत्मा सर्वज्ञ परमेश्वर वीतराग त्रिलोकनाथ अनन्त आनन्द को प्राप्त हुए, वह सब निर्दोष दशाएँ प्राप्त हुईं, वे परमार्थ स्वरूप में अन्दर आत्मा में पड़ी है - ऐसा आत्मा यहाँ कहा है न!
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म्मिल अप्पा मुइ ऐसा निर्मल भगवान आत्मा वर्तमान शाश्वत भाव-स्वभाव पवित्र वर्तमान शाश्वत् है । वर्तमान क्यों कहा ? शाश्वत् अर्थात् बाद में (ऐसा नहीं) । यहाँ वर्तमान शाश्वत् ध्रुव निर्मल भाव पड़ा है, उसे जो मुणइ अर्थात् अनुभव करता है । उसकी अन्तर्दृष्टि और आचरण है, वह भले व्रत, संयम, निमित्तरूप हो.... व्यवहार आचरण - उसे राग की मन्दता आदि हो परन्तु वह मोक्ष का वास्तविक कारण यह है और यह (मन्द राग) साथ में होता है तो इसे क्रमश: छोड़कर केवलज्ञान प्राप्त करेगा, सिद्ध सुख को प्राप्त करेगा। समझ में आया ?
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निमित्तपना होता है। होता है ( - ऐसा ) यहाँ सिद्ध किया है। स्वरूप के शुद्ध उपादान की श्रद्धा-ज्ञान और आचरण की भूमिका में पूर्ण शुद्धता प्रगट नहीं हुई, इसलिए शुद्धता का उस भूमिका के योग्य व्यवहार - राग की मन्दता होती है, उसे निमित्तरूप कहा जाता है। माल डाले उसकी थैली ... माल डाले बिना थैली किसकी कहना ? जूट की यह थैली दाल, चावल की नहीं कहलाती, माल डाले तो कहलाती है कि यह दाल की थैली है, यह क्या तुम्हारे वे बड़े ढोल होते हैं न ? अब तो बड़े ढोल रखते हैं न अनाज के ? ढोल... ढोल... ढोल में बड़ी पोल..... बड़े ढोल रखते हैं या नहीं ? इसी प्रकार हारबंध (पड़े हों), दाल, चावल, और अमुक और अमुक ऊछड़ा ... यह सब अभी तो यह हो गया है परन्तु किसका ? यह सब देखा है और सब देखा है । किसकी ( थैली) ? कि डाले उसकी। उसका क्या ? वहाँ क्या नाम लिखा है ? चावल डाले तो चावल का और दाल