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________________ २३० गाथा - ३० ३०, व्रती को निर्मल आत्मा का अनुभव करना योग्य है । ३० वीं गाथा जो णिम्मल अप्पा मुणइ वयसंजमुंसजुत्तु । तो लहु पावइ सिद्ध सुहु इउ जिणणाहह वुत्तु ॥ ३० ॥ पुस्तक है न ? भाई के पास है या नहीं ? उसमें है श्लोक, इस श्लोक में है । यहाँ तो श्लोक में से (अर्थ करते हैं) । ३० वाँ जो णिम्मल अप्पा मुणइ है न ? जो कोई आत्मा निर्मलानन्द प्रभु शुद्ध ज्ञानघन आत्मा को जो मुणइ अर्थात् जानता है, अन्तर निर्मल वस्तु शुद्ध चिन है, उसे अनुसरण कर निर्विकल्प से आत्मा को अनुभव करता है । निर्विकल्प अर्थात् राग के मलिनता के विकल्प से मिश्रित दशा के बिना.... भगवान आत्मा निर्मलानन्द प्रभु को निर्मल अनुभव से जो अनुभव करता है। 'मुणइ' अप्पा मुणइ अर्थात् अनुभव करता है। वयसंजमु संजुत्तु और उसमें भी उसे व्रत और संयम का भले व्यवहार हो परन्तु इस वस्तु सहित है तो उसे व्यवहार निमित्तरूप से वहाँ कहा जाता है। क्या कहा ? मुमुक्षु - मदद करे। उत्तर मदद किसने कही ? शुद्ध आत्मा अपना शुद्ध उपादान.... वह शुद्ध उपादान अर्थात् जिसमें से निर्मलता ग्रहण की जा सकती है - ऐसा यह भगवान, निर्मल आत्मा का जो अनुभव, वह उसका शुद्ध उपादान, मोक्ष का वास्तविक कारण वह है । उस काल में उसे व्रत, नियम का, निमित्त का व्यवहार होता है, तो उसे निमित्तरूप से यथार्थ लागू पड़ता है। सम्यग्दर्शन, अनुभव बिना के जो व्रतादि थे, वे तो निमित्तरूप भी नहीं कहे गये थे । यहाँ तो उन्हें निमित्तपना है इतना सिद्ध करना है। समझ में आया ? आहा...हा...! 1 जो कोई व्रत, संयम संजुत्तु णिम्मल मुणइ । व्रत, संयम.... (अर्थात् ) इन्द्रिय दमन सहित निर्मल आत्मा का अनुभव करे.... 'तो सिद्ध सुहु लहु पावइ' 'तो लहु पावइ सिद्ध सुहु‘लहु' अर्थात् अल्प काल में, लहु अर्थात् शीघ्र काल में । पावइ अर्थात् प्राप्त करता है। सिद्ध सुहु (अर्थात् ) सिद्ध परमात्मा का सुख । वह स्वयं आत्मा के अन्तर अनुभव में शुद्ध चैतन्य को अनुभव करता है, उसके साथ उसे व्रत, नियम के निमित्तरूप
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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