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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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हैं । तेरे पैसे धूल के ढेर, यह मेरे, उनके ऊपर लक्ष्य जाना वह आकुलता है, धूल है, वहाँ कहाँ (शान्ति है)? एक मोक्ष नहीं मिले, बाकी सब भटकने का मिले। एक मोक्ष नहीं मिले इतना न? धीरे से बड़ी हाँडी निकाल दे। दलाल है, दलाल। समझ में आया? आहा...हा...! कहाँ गये पोपटभाई! गये? गये लगते हैं। कहो, समझ में आया इसमें? आहा...हा... ! यह २९ वीं गाथा हुई।
देखो, शब्दार्थ में से तुम्हारे पाठ होता है न, उसमें से निकालते हैं। देखो! व्रत, तप.... यह व्याख्या की है। संयम.... इन्द्रियदमन और मूलगुण.... एक बार आहार लेना आदि मूढह परन्तु जो आत्मा के शुद्ध चिदानन्दस्वभाव से अनजान है - यह शब्दार्थ चलता है। है न श्लोक? पुस्तक में है। मोक्ख णिवुत्तु उसे मोक्ष नहीं कहा, उसे संवर-निर्जरा नहीं कहा। जाम ण जाणइ इक्क जब तक भगवान आत्मा अपनी मूल चीज को नहीं जाने। परु प्रधान, सुद्धउभाउ पवित्तु महा शुद्ध भगवान आत्मा पवित्र है, उसका सम्यग्दर्शन और अनुभव न हो, तब तक यह सब इसके व्यर्थ एक बिना की शून्य, रण में पुकारने जैसा है। इसकी पुकार कोई नहीं सुनता? और इसका रोना बन्द नहीं होता। समझ में आया?
। व्रती को निर्मल आत्मा का अनुभव करना योग्य है जो णिम्मल अप्पा मुणइ वयसंजमुंसजुत्तु। तो लहु पावइ सिद्ध सुहु इउ जिणणाहह वुत्तु॥३०॥
जो शुद्धातम अनुभवे, व्रत संयम संयुक्त।
जिनवर भाषे जीव वह, शीघ्र होय शिवयुक्त॥३०॥ अन्वयार्थ – (जो वयंसजमुसंजुवु णिम्मल मुणइ) जो व्रत, संयम सहित निर्मल आत्मा का अनुभव करे (तो सिद्ध सुहु लहु पावइ) तो सिद्ध या मुक्ति का सुख शीघ्र ही पावे (इउ जिणणाहह वुत्तु ) ऐसा जिनेन्द्र का कथन है।