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गाथा-२९
हैं), वे भी बन्ध का कारण हैं। यहाँ तो मिथ्यादृष्टि की बात ली है, क्योंकि वस्तु से अनजान – ऐसा लेना है। मूढह कहा है न? समझ में आया? मूढ़ह – गाथा में मूढ़ शब्द पड़ा है न?
ओ...हो...हो...! सब जाना परन्तु तूने भगवान आत्मा नहीं जाना। महाप्रभु विराजमान है, चैतन्य प्रभु, चैतन्य रत्नाकर । चैतन्य में अनन्त रत्न हैं । जैसे, समुद्र में रत्न के ढेर पड़े हैं, स्वयंभूरमण समुद्र में तो अकेले रत्न भरे हैं, रेत के बदले रत्न हैं, परन्तु वहाँ काम के किसे हैं? वहाँ लेने भी कौन जाये? इसी प्रकार यह भगवान आत्मा एक सेकेण्ड के असंख्य भाग में वस्तुरूप से अरूपी आनन्दघन दल चैतन्यदल है, उसमें अनन्त शान्त और वीतरागता के रत्न अनन्त भरे हैं, ऐसे चैतन्यरत्न की अनुभव-दृष्टि के बिना, अर्थात् उसकी महिमा और बहुमान अन्तर्मुख किये बिना बाह्य में जितने व्रत -तपादि किये जाते हैं, वे सब संसार के खाते में हैं। समझ में आया? पैसा-वैसा यह धूल मिले, भूत, देव-वेव हो, चार गति में भटकेगा। कहो, समझ में आया? बल्लभदासभाई! आहा...हा...!
वीतराग परमेश्वर सर्वज्ञ त्रिलोकनाथ तीर्थङ्करदेव जिन्हें पर्याय में, अवस्था में, हालत में, दशा में, स्वभाव के अन्तर आश्रय द्वारा पूर्ण ज्ञान और पूर्ण वीतरागता प्रगट हुई, तब भगवान की इच्छा बिना वाणी निकली, उस वाणी में यह आया - ऐसा सन्त यहाँ फरमाते हैं। समझ में आया? योगीन्द्रदेव दिगम्बर मुनि, जंगलवासी वन में रहते थे। उन्होंने कहा कि भाई ! इस तेरी चीज का अनजान और परचीज के झुकाववाले तेरे चाहे जैसे पुण्य के भाव हों, वे तेरे आत्मा को बन्धन के लिए और भटकने के लिए हैं। समझ में आया?
मुमुक्षु - एक मोक्ष नहीं मिलता?
उत्तर – बस! मोक्ष नहीं मिलता, यह भटकने का मिलता है – ऐसा कहते हैं। यह... धूल मिले, एक मोक्ष नहीं मिलता। ए... निहालभाई ! यह कहते हैं। एक मोक्ष नहीं मिलता, बाकी तो सब मिले न ! आत्मा की शान्ति नहीं मिलती, बाकी तो अशान्ति के ढेर मिले न ! ऐसा। आहा...हा...! अरे... ! तेरे इन्द्र के, देव के देवासन यह सब दुःख के कारण