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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
को प्राप्त करे, अनन्त आनन्दादि दशा को अरहन्त, सिद्धपने प्राप्त हुआ, उन सब निर्मल दशाओं की खान तो आत्मा है। वे दशाएँ कहीं बाहर से नहीं आती हैं।
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भगवान आत्मा एक समय में सत्... सत्... सत्... सत् .... चिदानन्द... चिदानन्द.... ज्ञान आनन्दादि अनन्त शक्तियों का रसकन्द है । उसका जहाँ अन्तर आदर नहीं, सन्मुखता नहीं, सावधानी नहीं, रुचि नहीं, उसको ज्ञेय करके ज्ञान नहीं, उसमें ज्ञेय करके स्थिरता नहीं, वहाँ तक सब बाहर के व्रत -तपादि चार गति में भटकानेवाले हैं । समझ में आया ?
समयसार में कहा है न ? वह दृष्टान्त दिया है । वदसमिदी गुत्तीओ सीलतवं जिणवरेहिं पण्णत्तं । बन्ध अधिकार में आता है न ? अभव्य ( यह सब ) करता हुआ भी अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है। ऐसे व्रत पाले, तप करे.... भाई ! उस तप की व्याख्या क्या ? भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द से शोभित तत्त्व है, तत्त्व है; उसके अन्तर में एकाग्र होकर अतीन्द्रिय आनन्द का शान्ति का सागर अन्दर से उछले और जैसे गेरुँ से सोना सुशोभित होता है, उसी प्रकार भगवान आत्मा, अतीन्द्रिय आनन्द का सागर भगवान आत्मा की एकाग्रता से उसकी दशा में अतीन्द्रिय आनन्द की पर्याय में - अवस्था में बाढ़ आवे उसका नाम भगवान तप कहते हैं। समझ में आया ? यह सब व्याख्या कैसी ! ऐ... ई... ! समझ में आया ?
जिस जाति का आत्मा का भाव है, उस जाति का भाव उसकी दशा में प्रगट हो, उसे मोक्ष का मार्ग कहते हैं । उस जाति के भाव से विपरीत भाव (होवे), वह सब संसार के खाते में, पुण्य के खाते में है । स्वर्ग मिले या धूल की सेठाई मिले, सब भटकनेवाले हैं। मुमुक्षु - ठीक है ।
उत्तर
क्या ठीक ? हैं ? नग्न सत्य है, आहा... हा... ! इसमें समझ में आया ? एक ओर राम और एक ओर गाँव.... एक ओर प्रभु अनन्त गुण का आतमराम, अनन्त गुण का आतमराम.... उसकी सन्मुखता, उसके सन्मुखता का ज्ञान, उसकी प्रती और स्वसन्मुखता के स्वरूप का आचरण, यह एक ही मोक्ष का मार्ग है, यह संवर और निर्जरा है । इससे विरुद्ध जितने भाव होते हैं, सम्यग्दृष्टि के भी जितने विमुख भाव (होते
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