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गाथा - २९
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बिना, ऐसे आनन्द को जानकर, अनुभव करके प्रतीति किये, बिना जितने ऐसे भाव व्रत, नियम के आदि के होते हैं, वे परसन्मुख की झुकाववाली वृत्तियाँ, आत्मा को अन्तर्मुख होने के लिए जरा भी मददगार नहीं है । कहो, समझ में आया या नहीं ? ऊपर कमरे में जाना हो, हॉल होवे और हॉल बीच में ? ऊपर कमरा और नीचे तलघर । ऊपर जाना हो तो थोड़ा तलघर में उतरे वह ऊपर जाने में कोई मदद करेगा या नहीं ? समझ में आया ? बीच में हॉल, नीचे तलघर, ऊपर कमरा; कमरे में चढ़ने की सीढ़ियाँ या थोड़ा चढ़ने में नीचे उतरे तो वह मदद करेगा या नहीं ?
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मुमुक्षु - वे सीढ़ियाँ तो.......
उत्तर – वह तो वह सीढ़ियाँ ... यह तो स्व-सन्मुख के आये यह तो स्व-सन्मुख की दृष्टि, स्व-सन्मुख का ज्ञान और स्व-स्वरूप की रमणता, यह सीढ़ियाँ हैं। आहा...हा...! भगवान परमानन्द का नाथ प्रभु का स्पर्श किये बिना ऐसी राग की क्रियाएँ मोक्षमार्ग नहीं है - ऐसा कहते हैं ।
शुद्धोपयोग की भावना न भा कर और शुद्ध तत्त्व का अनुभव न करके जो कुछ व्यवहार चारित्र है, वह मोक्षमार्ग नहीं है। देखो, इन्होंने लिखा है शीतलप्रसादजी ने । संसारमार्ग है.... आहा... हा... ! कठिन बात, भाई ! परन्तु स्त्री-पुत्र के लिए करते हों, दुकान के लिए करते हों, वह तो पाप । हैं? तब तो संसारमार्ग (कहो) ठीक है..... परन्तु यह दया, दान, व्रत, भक्ति... ? परन्तु भाई ! तुझे पता नहीं है, प्रभु ! यह बहिर्मुख झुकाववाली वृत्तियाँ हैं, अन्तर्मुख परमात्मा स्वयं निजानन्द से भरपूर है, उसके सन्मुख से विमुख है, इन विमुख वृत्तियों के भाव से आत्मा को पुण्य और संसार ही है । कहो, बल्लभदासभाई ! क्या करना यह ? सबने विवाद उठाया... पुण्यबन्ध का कारण है। समझ में आया ?
यह इनके अट्ठाईस मूलगुण.... साधु होवे और अट्ठाईस मूलगुण पालन करे, एक बार आहार, खड़े-खड़े आहार ले, नग्नपना- अचेलपना, सामायिक, छह आवश्यक के विकल्प – ऐसे अट्ठाईस मूलगुण पालन करे तो भी वह संसार और पुण्यवर्धक है। आहा....हा... ! भगवान ! तेरे पास कहाँ पूँजी कम है ? जहाँ आत्मा सर्वज्ञ परमेश्वर केवलज्ञानपने