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योगसार प्रवचन (भाग-१)
२२३ समझ में आया? आत्मा वीतरागमूर्ति है। स्वरूप से शुद्ध अविकारी स्वभाव आत्मा है। उसकी श्रद्धा, ज्ञान और अनुभव न करे और मूढ़ जीव, व्रत पालन करे; वस्तु के स्वभाव से अनजान (मूढ़ जीव) अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य पालन करे, वह मोक्षमार्ग नहीं; वह बन्धमार्ग है, वह संसार में भटकनेवाला जीव है। समझ में आया? व्रत, तप....
आत्मा चैतन्यमूर्ति शुद्धरस आनन्दकन्द है – ऐसी चीज का जहाँ अन्तर्मुख अनुभव, श्रद्धा, ज्ञान नहीं और वह स्वयं अनशन, उनोदर करे, आहार छोड़े, महीने-महीने के अपवास करे, रस छोड़ दे, दूध, दही, खाँड-शक्कर नहीं खाये - वे सब उसके तप निरर्थक हैं। समझ में आया? यह आत्मा ज्ञायक चैतन्यस्वरूप, भगवान परमेश्वर ने जो पर्याय में प्रगट किया अवस्था में – दशा में प्रगट हुआ। क्या कहा? यह आत्मा, देह में विराजमान चैतन्यरत्न, जिसमें अनन्त गुण का शुद्धपना भरा है – ऐसे आत्मा का जिसे अन्तरसन्मुख का अनुभव – सम्यग्दर्शन, ज्ञान नहीं - ऐसे जीव.... 'मूढ़' शब्द प्रयोग किया है न? मूढ़ । वस्तु ज्ञाता-दृष्टा अनन्त आनन्दादि शुद्धस्वरूप से भरपूर (है), उसका भान नहीं; इस कारण मूढ़ जीव, फिर भले ही वह व्रत, तप करे, विनय करे – देव-गुरु -शास्त्र की बहुत विनय करे, यात्रा करे, भक्ति करे, पूजा करे – यह सब उसके धर्म के खाते में नहीं है, वे सब शुभभाव बन्ध के लिये हैं, संसार के खाते में है। समझ में आया? क्योंकि परमात्मा-निज स्वरूप में आनन्द और शुद्धता पड़ी है, उसे स्पर्शे नहीं, उसे स्पर्श नहीं और मूढ़ अपने निज स्वभाव से अनजान, ऐसे विनय करे, देव-गुरु-शास्त्र की भक्ति; विनय, पूजा, नाम स्मरण करे – वे सब शुभरागरूपी पुण्य है, धर्म नहीं। उसे धर्म नहीं होता। समझ में आया? वह देव-गुरु-शास्त्र की वैयावृत्ति करे, सेवा करे परन्तु जिसे आत्मसेवा का पता नहीं कि मैं एक ज्ञानानन्द चिदानन्द शुद्ध ध्रुव अनादि-अनन्त पवित्र अनन्त शान्ति की खान-खजाना आत्मा हूँ; पूर्ण आनन्द जो परमात्मा को – सर्वज्ञदेव को प्रगट हुआ है, उस पूर्णानन्द का धाम आत्मा स्वभाव से है। ऐसे अतीन्द्रिय आनन्द का जिसे स्पर्श, स्पर्श नहीं – अनुभव नहीं, (उसे) छूता नहीं, सन्मुख नहीं – ऐसे मूढ.... स्वभाव से अजान जीव के देव-शास्त्र-गुरु की सेवा का भाव भी उसे संवर और निर्जरा में नहीं है; बन्ध में है। उसमें बन्ध होकर वह चार गति संसार में भटकनेवाला है। रतनलालजी! कठिन बात, भाई! समझ में आया?