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वीर संवत २४९२, आषाढ़ शुक्ल १,
गाथा २९ से ३२
रविवार, दिनाङ्क १९-०६-१९६६ प्रवचन नं. १२
यह योगसार शास्त्र है। योगीन्द्रदेव एक मुनि हुए हैं। दिगम्बर सन्त.... अनादि सर्वज्ञ परमेश्वर तीर्थङ्कर भगवान का कथित मार्ग, उसे यहाँ योगसाररूप से वर्णन करते हैं। २९ वीं गाथा। २९ वाँ श्लोक है न? मिथ्यादृष्टि के व्रतादि मोक्षमार्ग नहीं है।
वयतवसंजममूलगुण मूढह मोक्ख णिवुत्तु।
जाम ण जाणइ इक्क परु सुद्धउ भाउ पवित्तु ॥ २९॥
क्या कहते हैं ? जब तक यह आत्मा, द्रव्य-वस्तु और उसका भाव परम शुद्ध है। शरीर, वाणी, मन तो यह पर-जड़ है; अन्दर शुभ-अशुभभाव होते हैं, वह विकार-मलिन है। उनसे रहित आत्मा का स्वभाव (है)। आत्मवस्तु तो परम शुद्ध, परम निर्मल, उसका पवित्र भाव अन्दर स्वरूप में है। ऐसे आत्म-भाव का अनुभव न करे.... भगवान आत्मा शुद्ध चिद्घन आत्मा पवित्र आनन्दकन्द है – ऐसे आत्मा का अन्तर्मुख होकर, आत्मा का ज्ञान, आत्मा का दर्शन और उस आत्मा का आचरण-अनुष्ठान.... जहाँ तक ऐसा अनुभव न करे, तब तक मूढ़ जीवों के, अज्ञानी जीवों के किये हुए व्रत – यह अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य पालता हो, वह सब निरर्थक-राग की मन्दता का एक शुभराग है। समझ में आया?
भगवान आत्मा, सर्वज्ञ परमेश्वर त्रिलोकनाथ तीर्थङ्कर ने कहा, वैसा यह आत्मा अत्यन्त पवित्र शुद्ध आनन्द, सच्चिदानन्द और ज्ञायक अनाकुल शान्तरस से भरा हुआ, यह आत्मतत्त्व है। ऐसे भगवान आत्मा की श्रद्धा, उसका ज्ञान और उसका अनुभव, जब तक नहीं करे, तब तक अज्ञानी मूढ़ जीव के.... मूढ़ अर्थात् स्वरूप के अनजान जीव के...