________________
योगसार प्रवचन (भाग-१)
२२१
होता है। आहा...हा...! समझ में आया? जिसकी आत्मदृष्टि नहीं और जिसने उस विकल्प में ही लाभ माना है; जिसने विकार की क्रियाएँ होती है, उनमें लाभ माना है, जिसमें.... लो! वे फिर ऐसा कहते हैं, हमें तो उपदेश देना, उसमें निर्जरा होती है। तेरापन्थी.... आहा...हा...! अरे! कहाँ भूले, कहाँ भटके? हमें दूसरों को उपदेश देना, उसमें लाभ होता है, निर्जरा होती है। आहा...हा...! समझ में आया?
यहाँ तो भगवान अखण्डानन्द का नाथ प्रभु, उसके आश्रय के अतिरिक्त कोई भी विकल्प उत्पन्न हो, वह मोक्ष के मार्ग की कला में प्रवेश नहीं कर सकता। कहो, समझ में आया? निर्दोष आहार दे और खाये तो दोनों को निर्जरा (होती है)। दशवैकालिक की गाथा है, पाँचवें अध्ययन की। यह बारम्बार बोलते.... निर्दोष दाता, निर्दोष आहार-पानी देनेवाले मुनियों को दाता दुर्लभ है, और निर्दोष लेनेवाले दुर्लभ हैं । जीमनेवाले, निर्दोष आहार-पानी जीमनेवाले दुर्लभ हैं - ऐसा उसमें पाठ है। वह पाँचवाँ सत्र है. उसकी यह अन्तिम कड़ी है। भगवानभाई ! यहाँ कहते हैं; हराम पर को निर्दोष आहार-पानी देने से संवर-निर्जरा होता हो तो.... ए.... हमारे तो हीराजी महाराज तो जहाँ-जहाँ वहाँ यही बोलते, हाँ! गाँव में.... कोई उनके लिए आहार नहीं बनावे, उसके लिए यही बात करते थे। आहा...हा...!
कहते हैं, जिसकी दृष्टि इस पर के ऊपर है, इस पर के आश्रय में से किंचित् लाभ मानता है, ऐसे मिथ्यादृष्टि के व्रतादि जो हैं वे निर्जरा में नहीं है। निर्जरा में मोक्षमार्ग अर्थात् संवर-निर्जरा में नहीं है; बन्धमार्ग में है। यह विशेष कहेंगे....
(श्रोता : प्रमाण वचन गुरुदेव!)
AlYad
02