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________________ गाथा - २९ आहा...हा...! समझ में आया ? नमन करने योग्य जो मुनि आदि हैं, उन्हें भी नमन करने योग्य तो यह आत्मा है। ऐसा परमात्मा पूर्ण प्रभु, तीन लोक में जिसके साथ कोई तुलना की जा सके ऐसा नहीं । अद्वैत तत्त्व अपना भगवान है, वह पूज्य है, वह वन्दनीय है, मानने योग्य है, आदर करने योग्य है, ध्यान करने योग्य है । आहा...हा... ! २२० ✰✰✰ मिथ्यादृष्टि के व्रतादि मोक्षमार्ग नहीं वयतवसंजममूलगुण मूढह मोक्ख णिवुत्तु । जाम ण जाणइ इक्क परु सुद्धउ भाउ पवित्तु ॥ २९ ॥ जब तक एक न जानता, परम पुनीत स्वभाव । व्रत-तप सब अज्ञानी के, शिव हेतु न कहाय ॥२९॥ अन्वयार्थ – ( जाम इक्क परु सुद्धउ पवित्तु भाउ ण जाणइ ) जब तक एक परम शुद्ध व पवित्र भाव का अनुभव नहीं होता। ( मूढह वयतवसंजम मूलगुण मोक्ख णिवुत्तु ) तब तक मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीव के द्वारा किये गये व्रत, तप, संयम व मूलगुण पालन को मोक्ष का उपाय नहीं कहा जा सकता । ✰✰✰ २९ । मिथ्यादृष्टि के व्रतादि मोक्षमार्ग नहीं । ऐसे आत्मा का बहुमान श्रद्धा, ज्ञान, भान बिना भगवानस्वरूप से परमात्मा स्वयं है, उसकी अन्तर में निर्विकल्प सम्यग्दर्शन बिना अर्थात् पूर्णानन्द का नाथ भगवान स्वयं अपने आदर के अतिरिक्त जितने यह व्रत, नियम, विकल्प, तपस्या, पूजा, भक्ति, दान करे, यात्रायें करे, वे सब उसके धर्म के लिए नहीं हैं - मोक्षमार्ग के लिए नहीं हैं। समझ में आया ? अन्य लोग कहते हैं, एक बार सम्मेदशिखर की यात्रा करे तो.... 'एक बार वन्दे जो कोई'...... लाख बार वन्दन कर सम्मेदशिखर की (तो भी) एक भव नहीं घटता, ले ! ऐसा यहाँ कहते हैं। ए बाबूभाई ! आहा... हा.... ! तीन लोक के नाथ साक्षात् परमेश्वर को करोड़ बार वन्दन करे तो भी एक भव नहीं घटता, क्योंकि वे परद्रव्य हैं। परद्रव्य के लक्ष्य से उत्पन्न होता हुआ राग ही उत्पन्न
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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