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________________ २२४ गाथा-२९ भगवान आत्मा सत्.... सत्... सत्.... शाश्वत् ज्ञान और आनन्द की खान प्रभु आत्मा है। अतीन्द्रिय आनन्द के भान और स्पर्श बिना जो कुछ शास्त्र की स्वाध्याय करे... यह तप के बोल में आता है । रात्रि में इसका जरा-सा चला था। यह अन्य कहते हैं न कि हम सज्झाय करते हैं न! अरे! भगवान! भाई! सुन रे प्रभु! यह चिदानन्द की मूर्ति शाश्वत आनन्द की खान आत्मा है । शाश्वत् – अकृत, अविनाश – ऐसा तत्त्व अनन्त स्वभाव के, शुद्धस्वभाव से भरा हुआ भण्डार भगवान है। ऐसे आत्मा को अन्तर्मुख में स्पर्श बिना, बहिर्मुख की इतनी वृत्तियाँ.... शास्त्र-स्वाध्याय करे, ग्यारह अंग नौ पूर्व पढ़े.... स्वाध्याय करे, रात-दिन शास्त्र... शास्त्र... शास्त्र - यह सब विकल्प पुण्य-राग है, यह धर्म नहीं है। मुमुक्षु - भले ही धर्म नहीं, परन्तु निर्जरा तो सही न? उत्तर – धर्म नहीं, फिर निर्जरा कहाँ से आयी? समझ में आया? संवर, निर्जरा नहीं। देखो! व्रत, तप कहा है या नहीं? भगवान आत्मा....! भाई! यह चैतन्यरत्न है। प्रभु! इसे पता नहीं है। यह देह, वाणी, मन तो मिट्टी, जड़, धूल है । अन्दर कर्म हैं - आठ कर्म; जिसे नसीब कहते हैं, वह धूल, मिट्टी, जड़ है और यह हिंसा, झूठ, चोरी, विषयभोग की वासना – यह पाप है। दया, दान, व्रत, भक्ति, तप, जप, विनय के ऐसे विकल्प उत्पन्न हों, वे पुण्य हैं; वे कोई आत्मा नहीं। ऐसे पुण्य-पाप के रागरहित भगवान आत्मा वस्तु शाश्वत् नित्य ध्रुव है। उसे स्पर्शे बिना मूढ़ जीव ऐसी स्वाध्याय करे और विनय करे.... समझ में आया? उसके - मूढ़ के सब व्रत हैं-वृथा हैं। समझ में आया? आहा...हा...! स्वसन्मुख के भान बिना परसन्मुख से हुए सभी विकल्प की जाल, पुण्य या पाप – ये दोनों बन्ध का ही कारण है। रवाणी! आहा...हा...! ___ कहते हैं कि वहाँ तक मिथ्यादृष्टि अज्ञानी.... मूढ... मूढ़ कहा है न? उसके व्रत, उसका तप.... लो! प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, सज्झाय, ध्यान करे, आँखें बन्द करके ध्यान (करे), परन्तु किसका ध्यान? आँख बन्द करके बैठे परन्तु आत्मा एक समय में अखण्डानन्द प्रभु सत् की खान है। सत् शाश्वत् अनादि-अनन्त अकृत्रिम शाश्वत् पदार्थ-तत्त्व है। उसमें शाश्वत् शान्ति और शाश्वत् आनन्द अन्दर पड़ा है। समझ में आया?
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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