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गाथा-२६
यह तो सत्य का साहब बुद्धदेव परमात्मा स्वयं है। ऐसा आत्मा, उसे अन्तर्मुख होकर मुणहु - जान, अर्थात् अनुभव कर । समझ में आया?
मुमुक्षु - स्थिर में स्थिर हो, ऐसा तो आप ही समझा सकते हो।
उत्तर - वह स्थिर तत्त्व, स्थिर-स्थिर तत्त्व है। कल वहाँ नहीं आया था? अविचल आया था। दोपहर में आया था, दोपहर में आया था। अविचल रहने का स्थान भगवान है । वह उपशमरस और अकषाय शान्तरस और वीतरागता के रस से पिण्ड जमा हुआ वह आत्मतत्त्व है, वीतरागता के अकषाय रस से जमा हुआ पिण्ड है। उसमें विकल्प उठाना कि मैं दूसरों से समझू और दूसरों को समझाऊँ, यह वस्तु के स्वरूप में नहीं है। आहा...हा...! समझ में आया?
वाह... ! बुद्ध यह भगवान बुद्ध है, सत्यबुद्ध है। स्वयं से स्वयं जाननेवाला है, अपना ज्ञान अपने से जाने और वेदन करे – ऐसा यह आत्मा है, दूसरे किसी पहलू से आत्मा की स्थिति को माने तो वह आत्मा वैसा नहीं है। समझ में आया? जानपने के विशेष बोध द्वारा दूसरे को समझावे तो वह अधिक है, तो वह आत्मा का स्वरूप ऐसा है ही नहीं। क्या कहा, समझ में आया? जानपने के विशेष बोल से दूसरे का समाधान करे - ऐसा आत्मा है, यह आत्मा ऐसा है ही नहीं। ए... छोटाभाई! आहा...हा...! भगवान आत्मा सत्य साहब प्रभु! अकेला बुद्ध पिण्ड प्रभु है। उसमें इस विकल्प का अवकाश कहाँ है? वह जाना हुआ तत्त्व है, उसे कहूँ – ऐसा विकल्प, वस्तु का स्वरूप कहाँ है? ऐसा आत्मा ही नहीं है। ऐसा होवे तो सिद्ध भगवान बोलना चाहिए। समझ में आया? आहा...हा...!
जिणु वह स्वयं जिन है, देव-जिनदेव है। ओ...हो...हो... ! सच्चा जिन यह भगवान आत्मा है। समझ में आया? वे समवसरण में-लक्ष्मी में विराजमान हैं, वे तो तेरे लिए व्यवहार जिन हैं । तेरे लिए तेरा जिन वीतरागी बिम्ब वह स्वयं जिन है, परमेश्वर है। उनका जिन भी अन्दर में परमात्मस्वरूप जिन है। समवसरण और वह सब जिन-बिन है नहीं। समझ में आया? वाणी-ध्वनि निकले और समवसरण में इन्द्र एकत्रित हों, वह जिनपना नहीं है। आहा...हा...! उन्हें और आत्मा को कोई सम्बन्ध नहीं है। समझ में आया? जिन,