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________________ योगसार प्रवचन ( भाग - १ ) तू स्वयं सच्चा जिन है । रागादि कर्म शत्रु को हनन करनेवाला है । अर्थात् ? यह भी व्यवहार से है। वस्तु स्वरूप से वीतरागी बिम्ब भगवान है । उसे जानकर अनुभव कर, बस ! समझ में आया ? २०९ यह तो सारमार्ग है, अकेला मक्खनमार्ग है । आहा... हा.... ! ऐसे आत्मा को जिनरूप से स्वीकार, वीतरागी बिम्ब आत्मा प्रभु स्वयं मैं हूँ, उसे तू अनुभव कर । उसमें कुछ भी राग, वाणी, वाँचन, लेना-देना, शरीर के पुण्यप्रकृति के फल, उसमें यदि कहीं अधिकाई लग गयी तो जिनस्वरूप को अधिकपने नहीं माना है । आहा... हा... ! समझ में आया? भगवान जिनस्वरूप स्वयं ही है। अब, उस जिनस्वरूप के अतिरिक्त जितने बोल उठें, वे सब जिनस्वरूप नहीं हैं । अतः जिनस्वरूप की महिमा करनी है, उसके बदले उसके अतिरिक्त विकल्प, वाणी और जानपने का व्यवहार और उसकी महिमा व अधिकता स्वयं को ज्ञात हो जाये और या दूसरा ऐसा हो उसे इस प्रकार अधिकरूप माने तो वह भूल में पड़ा है । आहा... हा...! समझ में आया ? यह तो संसार विजयी जिनेन्द्र है.... देखो! अर्थ किया है, हाँ! संसार विजयी जिनेन्द्र है । वह तो विकल्प और उसके अभावस्वरूप जिनेन्द्र है । आहा... हा... ! अरे... ! शास्त्र के भानवाले भाव से भी वह मुक्त • ऐसा वह जिनेन्द्र है। समझ में आया ? ऐसा भगवान जिनेन्द्र प्रभु, उसका निर्विकल्प दृष्टि से ध्यान करना, उसे निर्विकल्प ज्ञान द्वारा ज्ञेय करना, यह उसे अन्दर में ऐसा वीतरागबिम्ब वह मैं हूँ, उसमें स्थिर होना, वह शिव लाभ का हेतु है। कहो, समझ में आया ? आहा... हा...! भाई ! एक व्यक्ति कहता था, अकेला तो कुत्ता भी पेट भरता है... आहा... हा...! दूसरे का करें, समझावें, दूसरे को समझें, तब उसका लाभ और जैनशासन कहलाता है। अरे... ! सुन... सुन..., कहा मूढ़ ! तेरा नाम सुखसागर है, और यह वितरीतता कहाँ लाया ? उसका नाम सुखसागर था। नहीं? बहुत करके वहाँ है। बोर्ड लिखा है, बहुत वर्ष पहले हीराभाई के मकान में आये थे । लो, आत्मा... आत्मा... आत्मा का करना... यह तो कुत्ते भी पेट भरते हैं... आहा...हा... ! ऐसे-ऐसे मूर्ख वे कोई अलग होंगे ? दूसरे का करना है । यहाँ कहते हैं कि दूसरे का करने का विकल्प उठाना, वह आत्मा नहीं है। अब सुन न !
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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