________________
योगसार प्रवचन (भाग-१)
२०७
है ही नहीं - ऐसा कहते हैं। आहा...हा... ! ऐसा आत्मा जानकर दूसरे को कहना, दूसरे को समझाना, बहुतों को लाभ होगा - यह आत्मा ऐसा है ही नहीं, यह कहते हैं। आहा...हा...!
मुमुक्षु - प्रभावना होती है। उत्तर - प्रभावना किसकी? कहाँ होती होगी? श्रोता – अन्तर में।
समझ में आया? यह ज्ञान, और अन्तर बुद्ध सत्यबुद्ध भगवान । भगवान बुद्धदेव स्वयं सत्य है, यह बुद्धदेव ही सत्य है। 'बुद्धं शरणं' आता नहीं इसमें ? आता है या नहीं? 'बौद्धं देवं शरणामि, बुद्धम गच्छामि' ऐसा कुछ शब्द आता है। लड़के बोलते थे, नहीं? अकलंक-निकलंक नाटक में बोलते थे। अभी किसी ने किया था या नहीं? पहले एक बार धीरूभाई ने नहीं किया था? 'बौद्धं देवं शरणामि' वे कहते 'अरिहंतं शरणामि, अरिहंत शरणामि' 'बुद्धं शरणं गच्छामि'।
यहाँ कहते हैं कि बौद्धं देवं शरणम् गच्छामि। यह मैं बौद्धदेव हूँ, भाई! आहा...हा...! सर्वज्ञ परमेश्वर त्रिलोकनाथ तीर्थंकरदेव फरमाते हैं कि भाई ! तू तो सत्यबुद्ध है न! इसमें सत्यबुद्ध का पूरा पिण्ड है, सच्चा बुद्ध है, सच्चा बुद्धपना, सच्चा देवपना, वह तू है, उसे जानकर अनुभव कर, यही मोक्ष के लाभ का हेतु और कारण है। आहा...हा...! कहो, समझ में आया? भाई! दूसरे के प्रश्न के उत्तर दे, समाधान करे तो कितना कल्याण हो! ए...ई... ! धूल भी नहीं होता, सुन न ! वह कहाँ मोक्ष का मार्ग था? आहा...हा...! समझ में आया?
सत्यबुद्ध भगवान चिदानन्द की मूर्ति, ऐसा स्वभाव, उसका अनुभव कर, यही मुक्ति के लाभ का हेतु है। दूसरा कोई कारण है नहीं। आहा...हा...! यह स्थिर.... स्थिर भगवान है, उसमें स्थिर हो, बाकी कोई मोक्ष का मार्ग नहीं है। आहा...हा...! लोगों को कठिन (लगता है) ऐसा भी यह सब व्यवहार.... व्यवहार। अब सुन न ! व्यवहार था कब उसमें? वह व्यवहार ही नहीं। समझ में आया? आहा...हा...! दूसरे से सुनना और दूसरे को सुनाना – ऐसा वस्तु के स्वरूप में नहीं है। ऐ... ई... निहालभाई!