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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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स्वभाव है, उसका इसे अनुभव करना। इस शिवलाभ का यह हेतु है, दूसरा कोई हेतु नहीं। यह तो सार कहते हैं न? सार... समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, योगसार, गोम्मटसार - सब सार है। आहा...हा...!
यह तो परमार्थ से तत्त्व क्या करने योग्य है ? मोक्षार्थी को क्या करने योग्य है ? और किस कर्तव्य से मोक्ष की प्राप्ति होती है ? (- उसकी बात है)। इस शुद्ध भगवान पूर्ण शुद्ध चैतन्य का अन्तर ध्यान करना, अनुभव करना, उसका अनुसरण करके अन्दर स्थिर होना – यह एक ही मुक्ति का उपाय है। कहो, समझ में आया?
सच्चेयणु यह सचेतन ज्ञानमूर्ति है। यह आत्मा तो ज्ञानचेतनामय है। जिसमें पुण्य -पाप का करना - ऐसी कर्मचेतना और हर्ष-शोक का भोगना - ऐसी कर्मफलचेतना. वह वस्तु-स्वभाव में नहीं है; वस्तु तो चेतनमय है। यह चेतन, कही और ज्ञानचेतना को वेदे – ऐसा इसका स्वरूप है। समझ में आया? यह ज्ञान को वेदे, ज्ञान का अनुभव करे, ज्ञान के आनन्द के स्वाद को ले – ऐसा यह आत्मा है। यह पुण्य-पाप के स्वाद को ले या हर्ष-शोक के अनुभव को ले – ऐसा आत्मा नहीं है। आहा...हा...! समझ में आया? अर्थात् ? यह तो चेतनामय वस्तु है, पर का कुछ करे या पर से ले – ऐसा उसका स्वरूप नहीं है। इसी तरह यह राग को करे या वेदे – ऐसा उसका स्वरूप नहीं है, आहा...हा...! समझ में आया? यह तो सचेतन जागृतस्वरूप, चेतनेवाला... चेतनेवाला... चेतनेवाला जागृत (स्वरूप है)। अग्नि को चेतते हैं न? चेताओ अग्नि - (ऐसा) नहीं कहते क्या? चूल्हे में पड़ी हो तो। यह तो इसका चेतने का स्वभाव ही है। आनन्द का वेदन करना, ज्ञान का वेदन करना, प्रत्यक्ष ज्ञान का वेदन करना – यही इसका - आत्मा का स्वरूप है। आहा...हा...! समझ में आया? यह तो परमार्थमार्ग की बात चलती है न?
मुमुक्षु – मार्ग एक है न!
उत्तर – परन्तु मार्ग दो हो कहाँ से? दूसरा है नहीं न। 'एक होय तीन काल में, परमार्थ का पंथ।'
भगवान आत्मा जो शुद्ध-बुद्ध स्वरूप है, उसमें चैतन्यमूर्ति, चेतना को वेदे, चेतना