________________
वीर संवत २४९२, ज्येष्ठ कृष्ण १४, गाथा २६ से २८
शुक्रवार, दिनाङ्क १७-०६-१९६६ प्रवचन नं. ११
यह योगसार चलता है। २६ वीं गाथा | योगसार अर्थात् इस आत्मा का स्वभाव शुद्ध चैतन्यमय अनन्त गुणका पिण्ड है, उसमें एकाग्र होकर उसका ध्यान करना यह मोक्ष के मार्ग का सार है। योग अर्थात् आत्मा का स्वरूप जो शुद्ध चैतन्य है, उसमें सन्मुख होकर एकाग्रता से आत्मा का ध्यान अथवा आत्मा के स्वभावसन्मुख का व्यापार (होना), वही सार और मोक्ष का कारण है । कहो, समझ में आया कुछ ? इससे कहते है
सद्धु सच्चेयणु बुद्धु जिणु केवलणाणसहाउ ।
सो अप्पा अणुदिणु मुणहु जइ चाहउ सिवलाहु ॥ २६॥
कोई आत्मा के पूर्णानन्द पूर्ण आनन्दरूपी अतीन्द्रिय आनन्द की दशा पूर्ण रूपी मुक्ति के लाभ को चाहता हो तो उसकी प्राप्ति - शिव लाभ, पूर्ण कल्याणमूर्ति आत्मा की निर्मल पर्याय - ऐसा मुक्तभाव (यदि) चाहता हो तो जड़ सिवलाहु चहद तो शुद्ध अप्पा दि । स विशेषण कहेंगे। यह आत्मा शुद्ध है, अत्यन्त वीतराग है, निर्दोष है, पूर्ण पवित्र परमात्मा है - ऐसा इसे आत्मा की ओर का प्रति दिन – हमेशा मुणहु आत्मा का अनुभव करना। कहो, इसमें समझ में आया ? शुद्ध है - ऐसा अनुभव करना । इस मोक्ष के लाभ के इच्छुक को यह काम है । कहो, समझ में आया ?
मुमुक्षु - इसमें लाभ क्या होता है ?
उत्तर
-
- यह लाभ है न यह ? लाभ सवाया कहा न ? सिवलाहु – निरूपद्रव पूर्ण कल्याणमूर्ति आत्मा की पर्याय, आत्मा की शुद्ध परिपूर्ण प्रगट पर्याय का नाम मुक्ति (है)। ऐसे मुक्ति के लाभ को चाहता हो तो शुद्ध भगवान पूर्ण शुद्ध, पूर्ण शुद्ध वीतराग निर्दोश