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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
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मन से प्रभु प्रगट हो - ऐसा नहीं है । आहा... हा... ! समझ में आया ? यह तेरे दया, दान और व्रत के शुभपरिणाम से भगवान ज्ञात हो - ऐसा नहीं है, यह कहते हैं। समझ में आया ? निर्विकल्प नाथ, सत्चिदानन्द प्रभु, पूर्णानन्द का नाथ अन्दर पूर्ण अनन्तगुण से भरा हुआ तत्त्व है, उसकी तुझे प्राप्ति करना हो तो उसका मनन कर । शरीर, निमित्त आया तो ठीक; इससे मिलेगा - यह मनन करना रहने दे - ऐसा कहते हैं । ऐसे निमित्त होवे तो ठीक, ऐसा शुभराग होवे तो ठीक, ऐसी कषाय की मन्दता के परिणाम होवें तो ठीक यह मनन तो तूने राग का किया। समझ में आया? यह मनन तो तूने अनादि काल से किया है। इससे अनादि से संसार फलता है, अब तुझे मुक्ति करना है या नहीं ? या चक्कर खाना है चौरासी के ? कैसे होगा ? मलूकचन्दभाई ! पैसे-वैसे में सुख होगा या नहीं ? नहीं ? धूल में भी नहीं। वहाँ धूल में कहाँ सुख था ? यह तो मिट्टी के परमाणु धूल है, उन पर लक्ष्य करे, वह तो राग और ममता, पाप है । उसे घटाने के कदाचित् दान के परिणाम करे तो वह शुभरा है। उसका मन है ? वह आत्मा का कल्याण है ?
यहाँ तो कहते हैं – अहिंसा का सत्य का, अचौर्य का, दान का, शुभभाव का तुझे मनन करना है ? वह मनन करके तो अनन्त काल भटका है । आहा... हा... ! शुद्ध वीतराग निरंजन भगवान आत्मा, पूर्णानन्द का नाथ, शुद्ध निरंजन- कर्म का अंजन नहीं और वीतराग.... कर्मरहित है, प्रभु ! उस पर दृष्टि कर, यह सत्ता विराजमान प्रभु आत्मा है। अनन्त गुणका पिण्ड है - ऐसी महासत्ता प्रभु पर दृष्टि कर और उसका मनन कर ! यह एक ही उसका मनन और एकाग्रता ही मुक्ति का उपाय है । कहो, ठीक होगा ? दो मार्ग होंगे ? यह भी मार्ग होगा और कोई दया, दान, व्रत से भी मुक्ति होती होगी ? धूल में भी नहीं। समझ में आया ? वे तो पुण्यबन्ध के कारण हैं। भगवान आत्मा शुद्ध... शुद्ध... शुद्ध... उसका मनन कर, उसका ध्यान कर और उसकी एकाग्रता कर तो तुझे परम्परा कल्याण, केवलज्ञान होगा और मुक्ति का लाभ होगा। दूसरे बहुत बोल हैं।
( श्रोता: प्रमाण वचन गुरुदेव !)