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________________ गाथा - २५ सम्यक्त्व बिना फिर सकता है। (पव सम्मत ण लधु) परन्तु अब तक इसने सम्यग्दर्शन को नहीं पाया है ( जिउ ) हे जीव ! (णिभंतु एहउ जाणि) नि:सन्देह इस बात को जान । ✰✰✰ १९४ अरे..... सम्यक्त्व बिना ८४ लाख योनि में भ्रमण । यह ८४ लाख योनियाँ एक आत्मा की सीधी अनुभवदृष्टि लिये बिना, इससे होगा और इससे होगा और इससे होगा, होली की विकल्प से होता है और शुभभाव से धर्म होगा ऐसा मानकर, आत्मा के स्वरूप का अनुभव - सम्यग्दर्शन नहीं किया। चौरासी लाख योनियों में भ्रमण किया । चउरासीलक्खह फिरिउ काल अणाइ अणंतु । पव सम्मत ण लद्धु जिउ एहउ जाणि णिभंतु ॥ २५ ॥ अनादि काल से यह जीव ८४ लाख योनियों में भटकता फिरता रहा है। स्वर्ग में अनन्त बार गया है। चौरासी में आया या नहीं ? स्वर्ग में.... आहा...हा... ! भाई ! तुझे आत्मा का अन्तर ध्यान, सीधे राग को छोड़कर सम्यग्दर्शन, स्वरूप के अभेद की दृष्टि करना - ऐसा जो सम्यग्दर्शन, उसके बिना अनन्त काल में एक कोई योनि खाली नहीं रखी। नरक में दस हजार वर्ष की स्थिति में अनन्त बार उत्पन्न हुआ है। दस हजार और एक समय की स्थिति में अनन्त बार उत्पन्न हुआ है। समझ में आया ? दस हजार..... कम से कम दस हजार (वर्ष) की स्थिति नरक में है। नारकी । नरक में है न ? पहले नरक, दस हजार वर्ष (की स्थिति में ) वहाँ अनन्त बार उत्पन्न हुआ। वह उष्ण वेदना, उसके एक समय अधिक के अनन्त भव, दो समय अधिक के, तीन समय.... (ऐसे) करते-करते अन्तर्मुहूर्त.... एक - एक समय के अनन्त भव किये। ऐसा जाओ, एक सागरोपम, उसके जितने समय हैं, उन-उन समय के अनन्त भव किये। जाओ, तैंतीस सागरोपम, सातवाँ नरक । आहा... हा... ! परन्तु अनन्त काल गया, बापू ! तेरा अभेद चिदानन्दस्वरूप सम्यग्दर्शन, वह सम्यग्दर्शन अर्थात् मोक्ष का मार्ग हाथ आ गया। (तब कहते हैं) यह... नहीं, नहीं... इसके बिना नहीं, मुझे इसके बिना नहीं (चलता) मर गया परन्तु इसी - इसी में... अभेद चिदानन्द मूर्ति को सीधी पकड़ ।
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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