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________________ योगसार प्रवचन ( भाग - १ ) १९३ इसलिए अन्दर में जा नहीं सकता, हो गया सफेद मूली जैसा, ऐसा का ऐसा । राग और व्यवहार लेकर चौरासी के अवतार में चला गया। ज्ञातासूत्र में यह आता है । यहाँ तो सब कथा व्याख्यान में पढ़ी है न । आहा... हा... ! मुमुक्षु - पढ़ी और की। उत्तर – की... यहाँ तो सब की, हाँ ! इतना फूटा कटोरा उसे छोड़ना रुचता नहीं, उसे उसके पैसे कमाने हैं। अरे ! परन्तु इससे पहले ही तेरा पाप का उदय लगता है। इसी प्रकार इसे, व्यवहार नहीं होता, व्यवहार बिना प्राप्त होता है ? अरे...रे... ! तब कहे व्यवहार साधन है, साधन। (तब इसे ऐसा होता है) हास । परन्तु वह साधन नहीं, सुन न, साधन कहा है, वह तो उसे छोड़कर स्वभाव में एकाग्र होवे तो उसे व्यवहार साधन कहा जाता है । आहा...हा... ! बेचारे चिल्लाते हैं... पुकार... पुकार। सोनगढ़ के सामने पुकार, उसके सामने पुकार । भगवान! यह बात नहीं बदलेगी, तुझे पता नहीं है । यह तो तीन काल तीन लोक में सिद्ध हुई सर्वज्ञ से आयी हुई बात है। यहाँ क्या पुकार करता है ? देखो न ! कहते हैं कि आत्मा परमानन्द पद अपने शुद्ध आत्मदेव को शरीर प्रमाण आकारधारी माने और उसका ध्यान करे.... देखो ! समझ में आया ? अपने स्वरूप का ध्यान कर, भाई ! परन्तु सीधा ध्यान ? पाधरू अर्थात् समझे ? सीधा, कुछ करने का तो कहो, परन्तु करना यहाँ छोड़ने का है । आहा... हा... ! अब कहते हैं, देखो ! पच्चीसवीं (गाथा) ✰✰✰ सम्यक्त्व बिना ८४ लाख योनि में भ्रमण चउरासीलक्खह फिरिउ काल अणाइ अणंतु । पव सम्मत ण लधु जिउ एहउ जाणि णिभंतु ॥ २५ ॥ लक्ष चौरासी योनि में, भटका काल अनन्त । पर सम्यक्त्व तू नहिं लहा, सो जानो निर्भान्त ॥ अन्वयार्थ – ( अणाइ काल ) अनादि काल से (चउरासी लक्खह फिरिउ ) यह जीव ८४ लाख योनियों में फिरता आ रहा है । (अणंतु ) व अनन्त काल तक भी
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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