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योगसार प्रवचन (भाग-१)
छोड़ना है, उसे लेकर अन्दर में प्रवेश हो सकेगा? समझ में आया? एक बात निमित्तरूप से है, परन्तु वह निमित्तरूप से कब कहलाये? भगवान अनन्त आनन्द की मूर्ति है, असंख्य प्रदेशी परिपूर्ण प्रभु है। यह उसका अन्तर में मुणहु अर्थात् ध्यान करना। उसकी
ओर का ध्येय करके, उसको ज्ञेय करके, उसमें स्थिरता करने का नाम आत्मा को जानना कहा जाता है।
अरे! इसे चार गति का दुःख नहीं लगा है। समझ में आया? यह व्यवहार के विकल्प भी, भगवान (को) दुःखरूप है। प्रभु सुखरूप है। आत्मा तो आनन्दरूप है। वह आनन्दरूप उस दुःखरूप से प्राप्त होगा? समझ में आया? इस कारण यहाँ कहते हैं कि वह तो स्वानुभव से ही ज्ञात हो ऐसा है। वह राग से और विकल्प से ज्ञात हो – ऐसा नहीं है। आहा...हा...! क्या हो? इसने अनादि से लुटा दिया है। लुटा दिया है। लूट, लूट आत्मा को लूट, अज्ञानभाव से लूट गया। कुछ नहीं रहा, उसका क्या स्वरूप है ? वह कहीं लक्ष्य में नहीं रहा। भगवान आत्मा, कहते हैं, भाई! एक स्वसंवेदन से ही ज्ञात हो – ऐसी उसकी शक्ति और उसका सत्व और उसका स्वरूप ही ऐसा है। उसका स्वरूप ऐसा है, उससे विरुद्ध त करने जाये तो अन्दर की प्राप्ति किस प्रकार होगी? समझ में आया?
अरे ! तीन लोक के नाथ परमेश्वर केवलज्ञानी ऐसा फरमाते हैं – भाई! तू तो अनन्त आनन्दस्वरूप है न! और वह भी तू तुझसे ही वेदन करके अनुभव कर सके - ऐसी तेरी चीज है। तुझे ऐसे पामर विकल्प की आवश्यकता नहीं है। इस भिखारी पामर राग की तुझे जरूरत नहीं है । भाई ! इसके सहारे की तुझे जरूरत नहीं है। आहा...हा... ! परन्तु मूढ़ कहता है नहीं... नहीं... नहीं... नहीं... ।
मुमुक्षु – पहले ऐसा होता है न?
उत्तर – परन्तु क्या पहले – पीछे था कब? यहाँ यह तो बात करते हैं। आहा...हा...! इसमें समझ में आया?
वह इसमें आता है, श्वेताम्बर में एक कथा आती है न? 'सुकुमारिका', हैं ? सुकुमारिका, द्रौपदी का जीव, पूर्व में उन मुनि को आहार दिया था न? ऐसा आता है। ज़हर का आहार दिया था, कड़वी तुम्बी का (आहार दिया था)। घूमते-घूमते शरीर ऐसा मिला,