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________________ १९० गाथा-२४ जायेगा। समाप्त होवे तो अच्छा, सुन न ! (आत्मा में) उसमें समायेगा। आहा...हा...! अरे ! मेरा शत्रु सामने न रहे तो मैं समाप्त हो जाऊँगा! कहो, समझ में आया इसमें? चैतन्यमूर्ति भगवान अनन्त आनन्द का पिण्ड प्रभु से विरुद्ध जितने विकल्प हैं, वे तो शत्रु है। वह शत्रु न रहे तो हमारा क्या होगा? शत्रु न रहे तो सम्प्रदाय का क्या होगा? क्या करना है तुझे प्रभु? आहा...हा...! मुमुक्षु - क्या चाहिए है, वह भूल गया होगा? उत्तर – पता ही नहीं क्या चाहिए? एक नाम धारा है, धर्म करना... धर्म करना... एक शब्द पकड़ा है। समझ में आया? दो वर्ष के लड़के से कहे न कि देख! अपने बड़े भाई शादी करते हैं, तुझे शादी करनी है ? तब (वह) कहे हाँ! विवाह अर्थात् क्या? इसकी उसे कीमत नहीं होती। उसकी जबावदारी क्या है ? इसका पता नहीं होता। देख, अपने भाई विवाह करते हैं, बड़े भाई, हाँ! बड़े भाई विवाह करते हैं, तुझे विवाह करना है ? तो कहता है हाँ... किस दिन विवाह करना है? आज? तो कहता है, हाँ। कहो, उसे पता नहीं विवाह का, पता नहीं समय का... विवाह अर्थात् क्या? और उसमें क्या होता होगा? इसका कुछ पता नहीं होता। इसी प्रकार इसे कहते हैं कि तुझे धर्म करना है ? तो कहता है – हाँ । कहाँ ? वह लड़के के जैसा है, हाँ! आहा...हा...! भाई! धर्म कहाँ होता है ? धर्म क्या होगा? धर्म का फल क्या है? वह धर्म कितने क्षेत्र में रहने से होता है? आहा...हा...! समझ में आया? आहा...हा... ! यह तो सार, सारवस्तु है। भाई ! तू अनन्त आनन्द का पिण्ड प्रभु है न ! वह अनन्त आनन्द उसमें नित्य है। उसमें नजर करे तो तेरी मुक्ति हो। इस नजर में श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र तीनों आ गये। मुणहु है न? आहा...हा...! और वह आत्मा स्वानुभूत्या चकासते वह अपने अनुभव की क्रिया से ही प्रगट होवे – ऐसा उसका स्वरूप है। यह व्यवहार के विकल्प – दया, दान, व्रत के विकल्प से आत्मा प्रसिद्ध हो – ऐसा उसका स्वरूप नहीं है। आहा...हा...! अरे, इसे कहाँ डालना है ? समझ में आया? तीन लोक का नाथ बादशाह परमात्मा, उसे ऐसे विकल्प हों तो उसे कुछ लाभ हो - शुभ-अशुभ विकल्प हो तो कुछ अन्दर में प्रवेश होता है... अरे! यह तो जिसे छोड़ना है और जिसका आदर करना है, वह आदर करना, उसमें यह विकल्प है नहीं और जिसे
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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