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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
I
कहते हैं कि असंख्य प्रदेशी प्रभु, वह हजार योजन के मच्छ में रहे तो भी असंख्य प्रदेशी हैं । आत्मा स्वयंभूरमण समुद्र में जाये, एक हजार योजन का मच्छ है न ? है असंख्य प्रदेशी । अंगुल के असंख्य भाग में इतने में रहे तो भी असंख्य प्रदेशी है । असंख्य प्रदेश में कम-ज्यादा नहीं होते। यह तो उसका अपना क्षेत्र ऐसा चौड़ा हुआ, संख्या नहीं बढ़ी, संख्या नहीं घटी। समझ में आया ? ऐसे आत्मा का अन्तर में ध्यान कर, कहते हैं । कहो, समझ में आया ? (फिर) समुद्घात की बात की है । इष्टोपदेश का अन्तिम श्लोक अपने आ गया था, २१ वाँ.... इन्होंने दिया है । यह है न ?
स्वसंवेदनसुव्यक्तस्तनुमात्रो
निरत्ययः ।
अत्यंत सौख्यवानात्मा लोकालोकविलोकनः ॥ २१ ॥
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मुमुक्षु तनुमात्र है सही न ?
उत्तर - हाँ, उसके साथ मेल करने को (दिया है) यह आत्मा लोकालोक को देखनेवाला.... अन्तिम लाईन है । अत्यन्त सुखी..... समझ में आया ? भगवान आत्मा कैसा है? कि लोकालोक को देखे - ऐसा उसका स्वरूप है । उसका स्वभाव ही लोकालोक को देखने का उसका स्वभाव है, उसे आत्मा कहते हैं । अत्यन्त सुखी है। सुखी अर्थात् भगवान अनन्त सौख्यस्वरूप है । अनन्त आनन्दस्वरूप आत्मा, उसे आत्मा कहते हैं । उसमें राग, द्वेष, और दुःख नहीं है । आहा... हा.... ! अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द का चक्का अन्दर पड़ा है, कहते हैं । भगवान आत्मा में अतीन्द्रिय अनन्त आनन्द, अतीन्द्रिय अनन्त आनन्द - ऐसा अन्तर में है, उस स्वरूप ही अनादि ऐसा ही है और वह नित्य है । वस्तु से नित्य है । स्वानुभव से उसका दर्शन होता है। देखो, इसके साथ मिलाया है । वह मुहु हैन ? मुहु । यह आत्मा स्वानुभव अन्तर के अनुभव से ही उसके दर्शन होते हैं। आहा... हा... ! किसी मन, वचन की क्रिया या दया, दान, भक्ति के विकल्प द्वारा आत्मा का अनुभव होता ही नहीं । अरे... भगवान ! इसे ऐसा लगता है कि अर... र... ! अरे भाई ! परन्तु करने को यह है । बापू ! इसके बिना तेरे सब व्यर्थ हैं। समझ में आया ? अरे ! हमारा व्यवहार कहाँ जायेगा ? अभी इसे व्यवहार जाये, वह रुचता नहीं है परन्तु व्यवहार इसमें नहीं है। यह व्यवहार हो तो यह सब रहेगा, वाला रहेगा.... (वरना) व्यवहार समाप्त हो
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