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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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आत्मा है । यह असंख्य प्रदेश उसका क्षेत्र है। फिर वह क्षेत्र कैसा होगा? समझ में आया? असंख्य प्रदेश आत्मा का क्षेत्र है। ऐसे असंख्य प्रदेश में पूरा शरीर प्रमाण पृथक्... पृथक्... पृथक... पृथक् (है)। जैसे पानी का कलश हो, (उसमें) उस कलश का आकार और अन्दर पानी का आकार और पानी का स्वरूप; उस पानी का क्षेत्र भी कलश के आकार होने पर भी, स्वयं के ही आकार से स्वयं में है। इसी प्रकार इस शरीर प्रमाण आत्मा अन्दर होने पर भी, स्वयं स्वयं के ही कारण से अपने असंख्य प्रदेशी आकार में रही हुई सत्ता है। सत्ता है, अस्तित्ववाला तत्त्व है तो उसका कोई आकार, अवगाहन, चौड़ाई होगा या नहीं? वह चौड़ाई कितनी? कि असंख्य प्रदेशी चौड़ाई है। इतना असंख्य प्रदेशी क्षेत्र, जिसमें अनन्त गुण भरे हैं, उनसे वहाँ पूरा क्षेत्र पड़ता है। उसका क्षेत्र कर्म का नहीं, राग का नहीं, शरीर का नहीं, यह स्त्री-पुत्र-परिवार – यह उसका क्षेत्र नहीं। वह क्षेत्र उनका है, वह इसका क्षेत्र नहीं। आहा...हा...! कहो, इसमें समझ में आया? वे सब क्षेत्र आत्मा के नहीं। आत्मा का क्षेत्र असंख्य प्रदेश... उस बंगले में भगवान अनन्त गुण से विराजमान है; वहाँ पूरा-सम्पूर्ण पड़ा है। व्यवहार से शरीरप्रमाण है – ऐसा कहा जाता है; निमित्त है इसलिए।
एहउ अप्पसहाउमुणि ऐसे अपने आत्मा के स्वभाव को मुणि (अर्थात्) जानो। भगवान आत्मा अनन्त शान्तरस से भरपूर महा पूर्ण आनन्दसागर से भरपूर है, उसमें डुबकी मार! नहाने जाते हैं न? नहाने, क्या कहलाता है तुम्हारे? बाथरूम। ऐसा समुद्र भरा है पूरा। चैतन्यरत्न का असंख्य प्रदेशों में समुद्र भरा है। समझ में आया? कहते हैं, ऐसे स्वभाव को तू जान ! उसे जान और भव तीरु लहु पावहु यहाँ तो मुणि - जानने से भवतीर को पाता है – एक ही बात ली है।
वस्तु की महिमा करके.... भगवान आत्मा ऐसा ज्ञानमूर्तिस्वरूप, आनन्दमूर्ति स्वरूप, शान्तस्वरूप पूर्णानन्द का नाथ असंख्य प्रदेश में बिराजमान भगवान की नजर लगाकर, उसकी नजर लगाकर, उसका ध्यान करके.... मुणि का अर्थ ही इतना किया है। उसे जानना अर्थात् ऐसा जानना जो है, ऐसा जानना जो है राग का, निमित्त का (जानना) ऐसा (होता है), ऐसा जान अर्थात् ऐसे (अन्दर में) झुका। समझ में