SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८६ गाथा-२४ णिच्छइ लोयपमाण मुणि ववहारइ सुसरीरू। एहउ अप्पसहाउ मुणि लहु पावहु भवतीरू ॥२४॥ लहु शब्द इसमें बहुत आता है। यहाँ तो भव का अभाव करने की बात है। भव मिले, वह कोई वस्तु नहीं है; वह तो अनादि संसारी (को है) – यह फिर कहेंगे – बाद के श्लोक में कहेंगे। समझ में आया? चौरासी लाख घूमा, बाद में कहेंगे। आत्मा अपने स्वभाव को प्राप्त करे और भव का अभाव करे – यह बात है। भव प्राप्त करे और उसमें भटके, यह तो अनादि का संसारभाव है, उसमें इसने नया क्या किया? इसलि कहते हैं - निच्छइ लोयपमाण ववहारसुसरीरु - निश्चय से आत्मा लोक-प्रमाण है। लोकप्रमाण अर्थात् ? लोक के जितने असंख्य प्रदेश हैं, उतना निश्चय से असंख्य प्रदेशी (आत्मा) यहाँ है – ऐसा कहते हैं। लोकप्रमाण चौड़ा - ऐसा नहीं। लोक के - आकाश के जितने असंख्य प्रदेश हैं, उतना असंख्य प्रदेशी यहाँ लोकप्रमाण निश्चय से भगवान अपने क्षेत्र में - असंख्य प्रदेश में विराजमान है। वह परमाणु में नहीं आता, कर्म में नहीं आता, राग में भी नहीं आता – ऐसा कहते हैं । समझ में आया? असंख्य प्रदेश में रहा हुआ तत्त्व, वह निश्चय से उसमें रहा है और व्यवहार से अपने शरीरप्रमाण (है)। इस निमित्तरूप से यहाँ गिनो तो शरीर के आकार प्रमाण वहाँ रहा है। यह तो परद्रव्य की – निमित्त की अपेक्षा से व्यवहार (से) इतने में (रहा है।) निश्चय (से) अपने असंख्य प्रदेशों में रहा है। निश्चय से अपने असंख्य प्रदेशों में, व्यवहार से इस शरीर के प्रमाण में निमित्तमात्र कहा जाता है। कहो, समझ में आया? मुमुक्षु – यह असंख्य प्रदेशी ही, इसमें लम्बाई-चौड़ाई नहीं? उत्तर – यह असंख्य प्रदेश, यही इसका क्षेत्र, इतना चौड़ा क्षेत्र है। यह घर और मकान; स्त्री और पुत्र, मकान इसका नहीं है – ऐसा कहते हैं। मुमुक्षु – दो फीट, पाँच फीट, दश फीट – ऐसा नहीं। उत्तर – यह नहीं; असंख्य प्रदेशी.... फिर हजार योजन में व्यापे या इतने साढ़े सात हाथ में मोक्ष जाए – उसकी बात लेनी है न यहाँ। असंख्य प्रदेश में रहा हुआ भगवान
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy