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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
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योजन तक पर्वत पर कितनी अधिक नजर जाती है ! उसे छोटे क्षेत्र में रहा हुआ छोटा ही जाने – ऐसा कुछ नहीं है। छोटे क्षेत्र में रहा हुआ अनन्त क्षेत्र को अपने अस्तित्व में रहकर जानता है - ऐसी उसकी अपनी स्वभाव की सामर्थ्यता है। ऐसे भगवान आत्मा को अन्तर में देख, कहते हैं। तेरा घर असंख्य प्रदेशी है - ऐसा कहते हैं । तेरा घर कर्म, शरीर, वाणी, मन-वचन है, वह तेरा घर नहीं है ।
परमात्मा, भगवान होवे तो उनका घर तुझसे पृथक् है । उनसे तेरा घर तो यहाँ इतने में ही है। समझ में आया ? असंख्य प्रदेश का पिण्ड प्रभु, शुद्ध अनन्त गुणों से भरपूर ऐसे आत्मा का ध्यान करो । आहा... हा...! बहुत संक्षिप्त ! यह तो योगसार है न ! समझ आया ? शीघ्र ही निर्वाण प्राप्त करो । लो, यह बात कल आ गयी थी। थोड़ी-सी ली। अब, २४ वीं गाथा |
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व्यवहार से आत्मा शरीरप्रमाण है
णिच्छइ लोयपमाण मुणि ववहारइ सुसरीरू ।
एहउ अप्पसहाउ मुणि लहु पावहु भवतीरू ॥ २४ ॥
निश्चय लोक प्रमाण है, तनु प्रमाण व्यवहार ।
ऐसा आतम अनुभवो, शीघ्र लहो भवपार ॥
अन्वयार्थ - ( णिच्छइ लोयपमाण ववहारइ सुसरीरू मुणि) निश्चय से आत्मा को लोकप्रमाण व व्यवहारनय से अपने शरीर के प्रमाण जानो ( एहउ अप्पसहाउ मुनि) ऐसे अपने आत्मा के स्वभाव को मनन करते हुए ( भवतीरू लहु पावहु ) यह जीव संसार के तट को शीघ्र ही पा लेता है अर्थात् शीघ्र ही संसार - सागर से पार हो जाता है।
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व्यवहार से आत्मा शरीर प्रमाण है । निश्चय से लोकप्रमाण है। वे असंख्य प्रदेश कहे न ? उन प्रमाण ।