________________
१८४
गाथा-२३
नहीं। समझ में आया? कोई जीव को लोकव्यापक कहते हैं, अनन्त में अनन्त मिल जाता है.... सब अनन्त आत्मायें, एक के सब अंशरूप है – ऐसा नहीं है। भगवान आत्मा असंख्य अंशोरूप प्रदेशों से परिपूर्ण शुद्ध भरा है। उसका अणुदिण मुणहु.... दिन-दिन, रात-दिन उसका अनुभव करो। देखो, यह मोक्षमार्ग!
आत्मा अखण्ड अनन्त गुण का पिण्ड, उसे अनुसरण कर अनुभव करो, आत्मा का वेदन करो, आत्मा की शान्ति का वेदन करो – इसका नाम धर्म और मुक्ति का मार्ग है। समझ में आया? यहाँ तो ताजा अच्छा माल वर्णन किया है। ऐसे पुण्य-पाप के विकल्प भले हो, उसके साथ यहाँ कोई काम नहीं है। भगवान आत्मा असंख्य प्रदेश के पूर से भरपूर पूरा है, उसका अनुभव करने से णिव्वाणु लहु पावहु.... शीघ्र निर्वाण प्राप्त करो। अपने स्वरूप की पूर्ण शुद्धतारूपी निर्वाण, अपने आत्मा की पूर्ण शुद्धतारूपी निर्वाण को प्राप्त करो। इस उपाय द्वारा; दूसरा कोई उपाय नहीं है। कहो, समझ में आया? इसमें मन-वचन और काया की क्रिया और सब बहुत कल आया था। आहा...हा...!
यहाँ बन्ध की बात ही नहीं। बन्ध, वह स्वयं अपने स्वरूप को भूले तो बन्ध होता है; अपने स्वरूप को सावधानी से संभाले तो मुक्ति होती है, बाकी दूसरी सब बातें हैं। अपना असंख्य प्रदेशी स्वभाव, अनन्त गुण से भरपूर, उसे भूले और राग-द्वेष तथा पुण्यपाप और परक्षेत्र में मेरी सत्ता है – ऐसी मान्यता करे तो वह परिभ्रमण करता है। इसे कर्म के साथ क्या काम है? समझ में आया? यह उनसे गुलांट मारकर बात है। भगवान आत्मा... जैसे कोठी में माल पड़ा होता है न? माल पूरा । वैसे ही इन असंख्य प्रदेशों में आत्मा का सारा माल पड़ा है।
मुमुक्षु – कोठी छोटी और माल ज्यादा?
उत्तर – माल अनन्त ! क्षेत्र अल्प हो, उसका यहाँ क्या काम है ? भाव अनन्त है। यहाँ पता नहीं पड़ता? यहाँ ज्ञान की एक समय की पर्याय, एक समय की पर्याय अनन्त को ख्याल में लेती है। क्षेत्र तो इतना छोटा है, लो! आँख का क्षेत्र कितना? देखो ! यह तो फिर देखने का इतना (बड़ा)। देखनेवाला तो आँख से देखता है। ऐसे पच्चीस-पचास