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वीर संवत २४९२, ज्येष्ठ कृष्ण १३,
गाथा २३ से २६
बुधवार, दिनाङ्क १६-०६-१९६६ प्रवचन नं.१०
श्री योगसार शास्त्र है। योगीन्द्रदेव कृत २३ वीं गाथा जरा थोड़ी चली है, फिर से थोड़ी लेते हैं।
सुद्धपएसह पूरियउ लोयायासपमाणु।
सो अप्पा अणुदिणु मुणहु पावहु लहु णिव्वाणु॥२३॥ भगवान आत्मा, इस देह में असंख्य प्रदेश शुद्ध से परिपूर्ण पड़ा है। क्षेत्र लिया है न? अर्थात् उसका रूप यहाँ असंख्य प्रदेश में ही पूर्ण है – ऐसा कहते हैं। आत्मा असंख्य प्रदेशी है। एक परमाणु (आकाश की) जितनी जगह को रोके, उतने भाग को प्रदेश कहते हैं। ऐसे असंख्य प्रदेशी शुद्ध प्रदेश है और इससे वह परिपूर्ण है। इतने में आत्मा देह, वाणी, मन, क्षेत्र दूसरा कर्म का क्षेत्र दूसरा विकार का.... असंख्य प्रदेश का पुंज प्रभु परिपूर्ण क्षेत्र में यह परिपूर्ण आत्मा इतने में है। समझ में आया? उसे वही अपना आत्मा है। यह असंख्य प्रदेश में परिपूर्णता इतने ही क्षेत्र में और एक क्षेत्र में अनन्त शुद्ध गुणों के असंख्य प्रदेश-असंख्य अंश अनन्त गुणों से भरपूर परिपूर्ण है। ऐसे आत्मा को रात-दिन, दिन-रात उसका मनन करो। ओहो...हो...! कहो, समझ में आया? रात-दिवस ऐसा ही मुणहु। जानो मूल तो है, अनुभव करो।
असंख्य प्रदेश में – इतने में – परिपूर्ण क्षेत्र में इतने में ही पूरा आत्मा अनन्त गुणों का भरा पिण्ड इतने में ही है। कोई ऐसा कहे कि बाहर व्यापक है.... (तो) यह बात झूठ है - यह बात कहने के लिये यहाँ शुद्ध असंख्य प्रदेशी पूर्ण आत्मा है – (ऐसा कहा है)। समझ में आया? उसका क्षेत्र असंख्य प्रदेश में ही पूरा पड़ता है, अधिक दूसरा लम्बा है