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गाथा- २३
आत्मा ऊँची चीज... सिद्ध की पर्याय पके ऐसा आत्मा है। समझ में आया ? संसार के वह आत्मा नहीं । आहा... हा... ! राग-द्वेष पके वह आत्मक्षेत्र नहीं । आहा... हा...!
अप्पा
यह शब्द लिया है न? सुद्ध शुद्ध प्रदेश है भगवान आत्मा के असंख्य प्रदेश शुद्ध हैं। जिसमें अनन्त गुण विराजमान हैं। लोयाया लोक के आकाश के प्रदेश प्रमाण उसका क्षेत्र है। सो अप्पा अणुदिण मुणहु रात-दिन उसका ही मनन करो.... अणुदिणु दिन-दिन, रात्रि । रात और दिन - ऐसा मुणहु पावहु लहु ऐसा असंख्य प्रदेशी भगवान अन्दर में विराजमान है, वहाँ नजर कर, वहाँ नजर कर, उस क्षेत्र में नजर कर ! अदि उसका ध्यान कर, अल्प काल में केवलज्ञानरूपी निर्वाण पद प्राप्त होगा । इसके बिना दूसरे किसी प्रकार हो ऐसा नहीं है।
( श्रोता: प्रमाण वचन गुरुदेव !)
अतीन्द्रिय दशा अर्थात् इन्द्रियों को ढाँकना नहीं
अहा ! मुनि को देहमात्र परिग्रह होता है अर्थात् एक शरीर ही होता है; परन्तु उस पर वस्त्र का एक धागा भी नहीं होता । उनको वस्त्र का धागा भी नहीं होने का कारण यह है कि पाँच इन्द्रियों की चञ्चलतारूप अस्थिरता भी मिट गई है, इसलिए सम्पूर्ण आत्मा में अतीन्द्रियपना प्रगट हो गया है, उनका नाम मुनि है। जिसे आत्मा का भान न हो और अकेला नग्न होकर घूमता हो, वह मुनि नहीं है।
मुझे अन्दर से यह बात आई थी कि यह नग्नपना अर्थात् क्या ? मुनि को वस्त्र का एक भी टुकड़ा क्यों नहीं ? अहा ! मुनि को अतीन्द्रियदशा हो गई है, इसलिए उनको किसी भी इन्द्रिय के किसी भी भाग को ढाँकना हो ही नहीं सकता। उनकी समस्त इन्द्रियाँ खुल्ली हो गई हैं और ऐसे जैन के साधु होते हैं - ऐसा यहाँ कहते हैं।
- पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी