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________________ १८० गाथा-२३ घर कहाँ है ? इस भगवान का? आहा...हा...! आत्मा असंख्यातप्रदेशी लोकप्रमाण है। भगवान आत्मा....! यह (शरीर) तो मिट्टी का-धूल का रजकण है। वह कहीं आत्मा नहीं है। अन्दर राग-द्वेष के परिणाम होते हैं, वे कोई आत्मा नहीं है। कर्म के रजकण धूल-मिट्टी पड़ी है, वह कर्म जड़ है। वह आत्मा नहीं है। आत्मा अन्दर असंख्य प्रदेशी है.... एक प्रदेश उसे कहते हैं कि जिसका एक परमाणु / पॉइन्ट गज समान का माप करने से जिसकी चौड़ाई दिखे, उसे प्रदेश कहते हैं। ऐसा भगवान आत्मा असंख्य प्रदेशी स्थल में पड़ा है। ऐसे असंख्य प्रदेश में अनन्त गुण का धाम पड़ा है। क्षेत्र किसलिए बतलाते हैं ? कोई ऐसा कहता है कि आत्मा लोकव्यापक है (परन्तु) ऐसा नहीं है। समझ में आया? भगवान आत्मा.... ऐसा एकाग्र होना चाहता है, तब एकाग्र होता है या ऐसे एकाग्र होता है ? हैं ? बस! उसका क्षेत्र असंख्य प्रदेशी, इस देह प्रमाण, देह से भिन्न; देह प्रमाण, देह से भिन्न । देह प्रमाण भले हो, इससे कहीं देह का प्रमाण यहाँ आत्मा में आ गया? वह तो असंख्य प्रदेशी भगवान लोक प्रमाण है। लोक के जितने प्रदेश हैं, उतनी संख्या से प्रदेश में आत्मा विराजमान है। राग में कहीं वह विराजता नहीं है। सुद्धपएसह पूरियउ लोयायासपमाणु। सो अप्पा अणुदिणु मुणहु पावहु लहु णिव्वाणु॥२३॥ लहु... लहु... लहु... बहुत बार आता है। मोक्ष कर, मोक्ष कर । मोक्ष तो तेरा घर है आहा...हा...! संसार में कहाँ मर गया भटक-भटककर? चौरासी के अवतार में कचूमर निकल गया तो भी छोड़ने का तुझे हर्ष नहीं आता? आहा...हा...! घर तो आ, घर तो आ। इस पर घर में भटककर मर गया, कहते हैं । कहाँ घर रहा तेरा? लोकाकाश प्रमाण असंख्यात शुद्ध प्रदेशी.... देखो! अन्तर वस्तु असंख्य प्रदेश का दल है। प्रभु अरूपी भी दल है । रूप, वर्ण, गंध, रस, स्पर्शरहित असंख्य प्रदेशी चौड़ाई दलवाली चीज है। दल – पुष्टवाली चीज है। इस असंख्य प्रदेश में असंख्य प्रदेश शुद्ध रत्न समान निर्मल है। असंख्य प्रदेश शुद्ध रत्न समान निर्मल है। इनमें अनन्त-अनन्त गुण निर्मलरूप से उस क्षेत्र में विराजमान है। आहा....हा....! समझ में आया? क्या
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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