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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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साधकजीव को अधूरा पूरा करना हो तो कुछ विकल्प और पर को समझाने से नहीं होता। अधूरा पूरा (करना हो तो) पूर्ण परमात्मा को देखने में एकाकार होवे तो अधूरा पूरा हो जायेगा। समझ में आया? आहा...हा...!
यहाँ तो कहते हैं शब्दों से समझ में नहीं आता। ए...इ...! मन और विचार में नहीं आता। भगवान मन के विचारने में आता है वह ? परमात्मा अखण्ड आनन्द का रसकन्द है। स्वयं अनाकुल शान्तरस का पिण्ड है, पिण्ड, पूरा पिण्ड पड़ा है, खोल दृष्टि में से, कहते हैं । आहा...हा...! ऐसा भगवान मन में, विचार में नहीं आता। शब्द तो क्रम -क्रम से बतलाते हैं, उसमें आत्मा कहाँ आया? कहते हैं। समस्त शास्त्रों की चर्चाओं को छोड़। गुणस्थान, मार्गणास्थान के विचार को बन्द कर। लो! ऐसा इन्होंने बहुत अधिक लम्बा लिखा है। समझ में आया? फल का दृष्टान्त आया है। ठीक है, कहो! यह दो गाथा हुई।
आत्मा असंख्यातप्रदेशी लोकप्रमाण है सुद्धपएसह पूरियउ लोयायासपमाणु। सो अप्पा अणुदिणु मुणहु पावहु लहु णिव्वाणु॥२३॥ शुद्ध प्रदेशी पूर्ण है, लोकाकाश प्रमाण।
सो आतम जानो सदा, लहो शीघ्र निर्वाण॥ अन्वयार्थ – (लोयायासपमाणु सुद्धपएसह पूरियउ) जो लोकाकाशप्रमाण असंख्यात शुद्ध प्रदेशों से पूर्ण है (सो अप्पा) यही यह अपना आत्मा है (अणुदिणु मुणहु) रात-दिन ऐसा ही मनन करो (णिव्वाणु लहु पावहु) व निर्माण शीघ्र ही प्राप्त करो।
अब आयी तीसरी। अब भगवान का स्थल बतलाते हैं। किस स्थल में भगवान विराजमान हैं ? यह भगवान आत्मा किस स्थल में (रहता है)? उसका क्षेत्र कहाँ ? उसका