________________
योगसार प्रवचन (भाग-१)
१६९
कब होयेंगे? अरे! क्या होगा? अब छोड़ न परन्तु लप.... कब क्या होगा क्या? है। है, पूरा भगवान परमात्मा पूर्णानन्द जिनेश्वर जैसा आत्मा है, ऐसे सब भगवान हैं, हाँ! सब भगवान हैं, उसे देख न ! राग और अल्पज्ञता वह कहीं आत्मा है ? अल्पज्ञता है, वह तो व्यवहार आत्मा हआ....रागादि तो परतत्त्व हआ... कर्म आदि तो अजीवतत्त्व हआ। जो आत्मा है. उसे तू देख न ! तो आत्मा है, वह तो अल्पज्ञ, राग और निमित्तरहित है। समझ में आया? इन जिन (जिनेन्द्र) को जैसे अल्पज्ञता राग और निमित्त नहीं है, वैसे ही मुझे भी अल्पज्ञता, राग और निमित्त नहीं है। मैं सर्वज्ञ समान हूँ। आहा...हा... ! समझ में आया?
इउ जाणेविण जोयइहु – ऐसा जानकर, हे धर्मी जीव! मायाचारु छंडहु। क्या कहते हैं ? यह अल्प राग और यह राग करते हैं और अमुक करते हैं और अमुक करेंगे - ऐसा करते-करते होता है - ऐसी माया छोड़ दे। भगवान पूरा सीधा-सरल पड़ा है। समझ में आया? राग करोगे तो ऐसा होगा, ऐसी पुण्य की क्रिया लोगों को बताई... आहा...हा...! कठिन क्रिया! क्या करना है तुझे? राग करके बताना है कि मैं साधु हूँ? यह करके बताना है तुझे या यह करके बताना है? – ऐसा कहते हैं । समझ में आया? साधु की क्रिया और राग की क्रिया... देखो! इसमें एकदम ऐसी निर्दोष की है, ऐसी की है, ऐसी की है। क्या है तुझे? आहा...हा...! मायाचार शब्द से.... चारित्रवन्त है न? उन्हें तीन शल्य नहीं होते - माया, निदान, और मिथ्यात्व – तीन शल्य ही नहीं होते। भगवान को शल्य हो तो तुझे शल्य हो। सिद्ध भगवान को है? तो जिन सोही है आत्मा.....श्रीमद ने नहीं कहा कछ? जिन सो ही है आत्मा, अन्य सो ही है कर्म । यह तो बनारसीदास ने लिखा है। इसी वचन से समझ ले जिन वचन का मर्म । जिन सो ही है आत्मा और अन्य सो ही है कर्म, इसी वचन से समझ ले, जिन प्रवचन का मर्म । लो! फिर यह आ गया। देखो, इसके साथ मेल, हैं ? यह बनारसीदास में है। देखो, यहाँ यह कहा।
जिन सो हि है आत्मा, अन्य सो ही है कर्म;
इसी वचन से समझ ले जिन प्रवचन का मर्म॥ आहा...हा...! भगवान भी उसे बड़ा करने जाये तो कहे, नहीं... नहीं... नहीं... नहीं... भाईसाहब! ऐसा नहीं, हाँ! इतना बड़ा मैं नहीं, इतना बड़ा मैं नहीं । खर्च देना पड़े