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गाथा-२१
ताकत.... वह मुझमें होगी? यह रहने दे। समझ में आया? मैं तो पूर्ण परमात्मा होने योग्य नहीं परन्तु मैं अभी परमात्मा हूँ। आहा...हा... ! मैं स्वयं द्रव्यस्वभाव से परमात्मा हूँ। यह वीतराग और (मैं) दोनों में मुझे अन्तर नहीं है – ऐसा मनन कर। यही सिद्धान्त का सार है। देखो चारों अनुयोग और लाखों कथनों का यह सार है। आहा...हा...! समझ में आया?
इह सिद्धंतहु सारु ओ...हो...हो...! अच्छे शब्दों के शास्त्र, वीतरागी समस्त वाणी के शास्त्र या दिव्यध्वनि, इन सबका सार तो यह है। परमात्मा समान जानना - इसका अर्थ कि निमित्त, राग और अल्पज्ञ तरफ की रुचि छोड़ दे और सर्वज्ञ – वीतरागस्वरूप मैं
आत्मा-परमात्मा हूँ – ऐसी अन्तरदृष्टि कर । तू पर्याय में परमात्मा हुए बिना नहीं रहेगा। फिर तू नहीं रह सकेगा। यह है या नहीं? ए...इ...!
विद्यमान को अविद्यमानता फिर नहीं रुचती अधिक पैसेवाले होते हैं न? उस पुत्र का विवाह होता हो वहाँ चूं... .... करता होगा? और इकलौता लड़का हो, तथा पचास लाख की पूँजी हो तो (ऐसा बोलता है) ए... खर्च करो अभी पाँच लाख और लड़का कमाऊ हो, पैसे आते हैं, कन्या करोड़ रुपये लाती हो, कन्या लानेवाली हो... दस हजार नहीं । सुमनभाई तो दस हजार लाते हैं । वह कन्या तो करोड़ रुपये लेकर आती हो, पाँच करोड़ तो यहाँ हो और लड़का लाखों करोड़ों कमाता हो। लाओ, पानी... ओ...हो... ! और बीस वर्ष का युवा पुत्र हो... कहो? इसमें वह कमी रखता होगा? विद्यमान को अविद्यमान शोभता होगा? इसी प्रकार भगवान पूर्ण परमात्मा जैसा विद्यमान है, उसे अल्पज्ञ और राग शोभता होगा? समझ में आया? क्या कहते हैं यह? आहा...हा...!
जो जिणु सो अप्पा मुणहु मार धड़ाक पहले से, पामर है या तू प्रभु है ? तुझे क्या स्वीकार करना है? पामरपना स्वीकार करने से पामरपना कभी नहीं जायेगा, प्रभुपना स्वीकार करने से पामरपना खड़ा नहीं रहेगा। समझ में आया? आहा...हा...! भगवान आत्मा... मैं स्वयं द्रव्य से परमेश्वरस्वरूप ही हूँ – ऐसा जहाँ परमेश्वरस्वरूप का विश्वास आया तो वीतराग जैसा हुए बिना नहीं रहेगा। दृष्टि में वीतराग हुआ, वह स्थिरता से होकर अल्प काल में केवलज्ञान लेगा – ऐसी यहाँ बात करते हैं । समझ में आया? अरे...! हम