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गाथा-२१
परमात्मा हूँ, अकेला ज्ञाता-दृष्टा आत्मा परिपूर्ण हूँ – ऐसे भान की भूमिका में बाकी रहे हुए आचरण का राग कैसा होता है ? वह चरणानुयोग में बतलाया गया है। इसलिए उसमें सार तो आत्मा ही है। सार, यह राग की क्रिया सार नहीं है । भेद से बताया है तो अभेद; भेद सार नहीं है। व्यवहार से बतलाया है निश्चय; व्यवहार सार नहीं है। समझ में आया? इस व्यवहार के आचरण से बतलाया कि वहाँ निश्चय कैसा होता है ? यह बतलाया है।
यहाँ तो स्पष्ट बात करते हैं, देखो! जो जिणु सो अप्पा यहाँ तो वीतराग, वह आत्मा – ऐसा। किसी को ऐसा हो जाता है - हम दो आत्मा एक होंगे? उसका अर्थ कि सर्वज्ञ परमात्मा कन्द शुद्ध चिदानन्द स्थित हैं। ऐसा ही तू कन्द शुद्ध ज्ञातादृष्टा का कन्द उसे आत्मा कहते हैं । जो जिणु सो अप्पा आत्मा अत्यन्त वीतरागता का पिण्ड ही है। परमात्मा पर्याय में वीतराग पिण्ड हो गये हैं. यह वस्त से वीतराग पिण्ड ही है। इस जानने-देखने की क्रिया के अतिरिक्त इसकी कोई क्रिया है ही नहीं। ऐसा तू आत्मा को जिन-समान जान । द्रव्यानुयोग में तो यही चलता है। यह तो द्रव्यानुयोग की व्याख्या है। समझ में आया?
तीन अनुयोग की बात हुई। द्रव्यानुयोग में तो आत्मा को शुद्ध बतलाना है, अभेद बतलाना है। भेद से बतलावे तो भी भेद बतलाना है ? व्यवहार से व्यवहार बताया है ? बताया है अभेद। यह वस्तु परमात्मा पूर्ण है। इसे विश्वास कहाँ है? महा सत्स्वरूप भगवान चिदानन्द परमात्मा, अनन्त परमात्मा जिसके गर्भ में स्थित है, उसका प्रसव करने की ताकत इस आत्मा में है। राग को प्रगट करे, वह आत्मा नहीं, वह आत्मा में नहीं; अल्पज्ञता रहे वह आत्मा में नहीं है। ऐसा कहते हैं। आहा...हा...! कहो, प्रवीणभाई ! ऐसी बातें सुनी नहीं।
मुमुक्षु - आपकी बात लक्ष्य में लेने के लिए कितनी योग्यता चाहिए?
उत्तर – कितनी योग्यता (चाहिए), ठीक न? ए...य... आहा...हा...! क्या कहते हैं? परन्तु सामने शब्द पड़ा है या नहीं? सबके हाथ में पुस्तक है या नहीं? नामा मिलाते हैं या नहीं? बनिये मिलाते हैं न? यह दीपावली आवे तब नहीं मिलाते? यह दीपावली का