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________________ योगसार प्रवचन ( भाग - १ ) में त्रिकाल ज्ञान - ऐसा बतलानेवाले भगवान भी कहते हैं कि तू त्रिकाली ज्ञान ही है। तीन काल तीन लोक को जाननेवाला ही तू वर्तमान है। राग का कर्ता या सम्बन्ध में लक्ष्य जाये, वह कहीं वास्तविक स्वरूप नहीं है - यह बतलाने को सर्वज्ञपद, जिनपद और मोक्षपद बतलाया है। समझ में आया ? पहले विवाद पूरा ... सर्वज्ञ है या नहीं ? सर्वज्ञ का सर्वज्ञ जाने । अरे... भगवान ! १६५ , — यहाँ तो कहते हैं, 'जिन सो हि है आत्मा' - इन सर्वज्ञ ने जो बतलाया - ऐसा ही यह आत्मा है। स्वयं को जानना ही नहीं चाहता, उसकी दरकार ही नहीं है । इस बात में ऐसे शल्य होते हैं, सूक्ष्म शल्य ऐसे रहे होते हैं। यह तो बहुत स्थूल है परन्तु अनन्त काल में नौवें ग्रैवेयक गया, ऐसा शुभ शल्य अन्दर मिठास का रह गया है कि उसका पता इसके हाथ में नहीं आया। समझ में आया ? कहीं-कहीं अधिकपने राग को, विकल्प को, पुण्य को, निमित्त को, स्वभाव में से अनादर करके कहीं-कहीं अधिकपना माना- मनवाया ऐसी दृष्टि में रुका परन्तु जिन, वह आत्मा - ऐसा इसने नहीं जाना है। समझ में आया ? देखो न ! सार-सार बात भरी है । - जो जिनेन्द्र है, वही यह आत्मा है .... वही यह आत्मा है.... ऐसा, ऐसा । ऐसा मनन करो। ऐसा मनन करो । करणानुयोग में भी यही कहा है और चरणानुयोग में भी यह कहा है कि श्रावक के, मुनि के व्रत कैसे होते हैं ? कहाँ ? कि जहाँ शुद्धात्मा जिन-समान है - ऐसा जाना है, उसकी शुद्धता प्रगट हो गयी है, उस भूमिका के प्रमाण में राग आचरण का भाव कैसा होता है ? यह वहाँ बतलाया है। अकेले राग के आचरण के लिये राग बतलाया है ? समझ में आया ? वीतराग परमानन्द प्रभु, राग और अल्पज्ञता का आदर छोड़कर - निमित्त, राग और अल्पज्ञता का आदर छोड़कर सर्वज्ञ परमात्मा, सर्वज्ञ हुए। इसी प्रकार (तुझे) सर्वज्ञ होना होवे तो हमारे जैसा तू कर, हमारे जैसा तू है - ऐसा पहले स्थापित कर । मैं वस्तु से पूर्ण परमात्मा वीतराग हूँ । अल्पज्ञता है, राग है, वह आदरणीय नहीं है । इस प्रकार चरणानुयोग में भी यह कहा है - ऐसा वर्तन श्रावक का, मुनि का व्यवहार से होता है । वह व्यवहार होता कहाँ है ? कि निश्चय ऐसी शुद्धता हो वहाँ । कैसी शुद्धता ? मैं वीतराग समान
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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