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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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इसी प्रकार सिद्ध भगवान के मण्डप में प्रविष्ट होनेवाले हम आत्मा हैं, कहते हैं। हम दूर रहें, आगे रहें, दरवाजे पर रहें, ऐसे हम नहीं हैं। एक बार तो निर्णय कर आहा...हा...! हम राग करें, दया पालें, कुछ भक्ति करें, कुछ व्रत पालें तो भगवान आत्मा हाथ में आवे। मर गया.. मर्ख! अब सन न! राग में आत्मा हाथ में आता होगा? त राग है? त राग है? तू पर है ? तू विकार है कि उससे अपने को लाभ हो? समझ में आया? ए... प्रवीणभाई! राम... राम... राम... राम... (करे)।
यहाँ तो बहुत लम्बी बात ली है। थोड़ा तप लिया है, हाँ! इस ओर, देखो पृष्ठ ११२ है न! सिद्ध भगवान स्वयं के द्वारा ही अपनी स्वानुभूति की तपश्चर्या निरन्तर तपते हुए परम तप के धारक हैं। वे दश धर्म लिये हैं न? वे। भगवान ! यह तपधर्म, सिद्ध में भी तपधर्म हैं और मुझ में भी है। कौन सा तप? सिद्धभगवान स्वयं के द्वारा ही अपनी स्वानुभूति.... अपने आनन्द का अनुभव सिद्धभगवान स्वयं करते हैं। ऐसी तपस्या
आनन्द से निरन्तर तप रहे हैं, वे परम तप के धारक हैं। मैं भी ऐसा हूँ। मैं भी स्वात्माभिमुख होकर अपनी ही स्वात्मरमणता की अग्नि में निरन्तर अपने को तपाता हुआ परम इच्छानिरोध तप गुण का स्वामी हूँ। सिद्ध के साथ मिलाया है। सिद्ध के साथ.... वे है न... उनके जैसा तू। समझ में आया? भगवान आत्मा में और सिद्ध आत्मा में कोई अन्तर नहीं है। इस प्रकार उनमें अन्तर निकाल दे तो सिद्ध हुए बिना नहीं रहेगा। यही तेरे मोक्ष का साधन है। दूसरा कोई साधन नहीं है।
(श्रोता : प्रमाण वचन गुरुदेव!)
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