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गाथा - २०
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हूँ । मेरे गीत, जिनेश्वर के गीत मैं मेरे गाता हूँ । ' भंग मा पडसू रे प्रीत प्रभुजी'.... प्रभु मेरे एकता में भंग मत पड़ना... मेरे स्वरूप में वीतरागपना है, उसकी श्रद्धा, ज्ञान में भंग मत पड़ो। ‘भंग मा पडसू रे प्रीत जिनेश्वर, बीजो मनमन्दिर आणू नहीं'.... राग विकार और संयोग को मेरे स्वभाव में मैं एकत्वरूप से नहीं लाऊँगा । 'ए अम कुलवट रीत जिनेश्वर...' हे तीर्थंकर ! तेरे कुल के वट की रीति में यह आता है, कहते हैं । आपने राग और संयोग को स्वभाव में नहीं मिलाया, नहीं मिलाया, ऐसे परमात्मा हम आपके भगत हैं । आहा... हा...! हम भी राग के विकल्प दया, दान, व्रत के विकल्प और संयोग को आत्मा में नहीं आने देंगे, एकपने नहीं होने देंगे। हम आपके जैसे, एकरूप कैसे होने देंगे ? आहा...हा... ! रतिभाई ! आहा... हा... ! परन्तु किसी दिन बात क्या है ? उसकी मर्यादा चैतन्य की क्या है ? वीतरागता की क्या है ? पर्याय की अल्पज्ञता की मर्यादा की हद क्या है ? विकार के स्वरूप की स्थिति क्या है ? उसका मूल पता लिये बिना यह पता कहाँ से आयेगा ? आहा... हा... !
मुमुक्षु - रुक गया बाहर में ।
उत्तर - रतनलालजी ! दूसरे चिल्लाते हैं, अरे... सोनगढ़वाले... अरे ! भगवान ! सुन रे सुन, प्रभु !
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भाई ! इस तेरे स्वरूप की पूर्णता में अपूर्णता कैसे कहना ? तेरे स्वरूप को विकारवाला कैसे कहना ? तेरे स्वरूप को संयोग में रहा - ऐसा कैसे कहना, सम्बन्धवाला ? समझ में आया? वह सम्बन्धरहित, विकाररहित अल्पज्ञतारहित - ऐसा आत्मा, परमात्मा का स्वभाव वैसा मेरा स्वभाव, निश्चयनय से तू सत्यार्थरूप से ऐसा ही जान। ऐसा जानने से तुझे वीतरागता प्रगट होगी; वीतरागता से तुझे अल्प काल में केवलज्ञान होगा, उसमें अन्तर नहीं है । कहो, समझ में आया ?
णिच्छइ एऊ वियाणि अन्दर थोड़े छह कारक डाले हैं। सिंह का दृष्टान्त दिया है। जैसे कोई सिंह का बालक सिंह होने पर भी दीन पशु बनकर रहे.... लो ! यह सिंह का बच्चा बकरों में पहले से उछला, सिंह का बच्चा बकरों के साथ डाला तो (ऐसा मानने लगा) हम सब एक जाति के हैं । जहाँ एक सिंह आया, दहाड़ मारी, इस दहाड़ से