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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
में तड़फड़ाते हैं । आहा... हा... ! कैसे होगा ? मनसुखभाई ! आहा... हा... ! ऐसी इसे दया आनी चाहिए। अरे! आत्मा ! अब तुझे किंचित सुख हो - ऐसा रास्ता ले, भाई ! ये सब दुःख के रास्ते हैं । इस सुखी होने के रास्ते में जिनेन्द्रस्वरूप मेरा है - ऐसा निर्णय करना, यह सुख का साधन वहाँ से प्रगट हो - ऐसा है। समझ में आया ? यहाँ तो ऐसा कहते हैं ।
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‘योगसार' जोड़ना है न वहाँ ? कौन है ? कि मैं जिनेन्द्रस्वरूप हूँ। मैं जिनेन्द्रस्वरूप न होऊँ तो जिनेन्द्रदशा आयेगी कहाँ से ? समझ में आया ? प्राप्त की प्राप्ति है। मेरी चीज में ही समस्त पूर्ण आनन्द, पूर्ण ज्ञान जो प्रगट होना है, वह सब मेरे पास है। मैं स्वयं पूर्णरूप पड़ा हूँ - ऐसा जिसे श्रद्धा में, ज्ञान में, धारणा में न ले तो उसे स्मरण में कहाँ से आयेगा ? श्रद्धा, ज्ञान में पहले लिया है। समझ में आया ? इससे शुद्धभाव से जिनेन्द्र का स्मरण करो, जिनेन्द्र का चिन्तवन करो... स्मरण करके बारम्बार उसकी एकाग्रता करो ऐसा कहते हैं । स्मरण करके उसका घोलन करो।
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भगवान आत्मा सार में सार पदार्थ (है ।) बारह अंग में कथित तत्त्व, बारह अंग में भगवान द्वारा कहा गया पदार्थ, वह यह जिनेन्द्र प्रभु आत्मा - यह सार में सार है। समझ में आया ? उसका चिन्तवन करो । स्मृति करके, फिर बारम्बार उसमें एकाग्र होओ। भाई ! इस वस्तुस्वरूप परमानन्द की मूर्ति में चिन्तवन करने से सुख की, शान्ति की, मोक्ष के मार्ग प्राप्ति होती है । चिन्तवन करो, यह योगसार है ।
जिण भायहु विशेष ध्यान करो। फिर लीन होओ, लीन होओ। वीतराग परमात्मा मैं स्वयं हूँ । उसका स्मरण, चिन्तवन और ध्यान । उसकी लीनता कि जिसमें अतीन्द्रिय आनन्द के अमृत का स्वाद आता है। समझ में आया ? जो यह दुःख का स्वाद (आता है), चौरासी के अवतार में एकेन्द्रिय से लेकर, आहा... हा...! त्रस की स्थिति, त्रस में रहा है, यह दो हजार सागरोपम कठिनता से रहे । त्रस में स्थिति रहे तो दो हजार सागरोपम रहे । स्थिति पूरी हो तो लम्बी स्थिति में एकेन्द्रिय में जाता है। समझ में आया ? इस जिनेन्द्र आत्मा में स्मरण और ध्यान बिना । इस विकार के स्मरण और ध्यान द्वारा त्रस हुआ, स की स्थिति पूरी होगी (तो) एकेन्द्रिय में निगोद... निगोद, जिसमें अनन्त काल मनुष्य का अवतार नहीं (होगा) – ऐसे स्थान में जाएगा । अन्तर्मुहूर्त में कितने भव करता है यह ?