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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
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कहा ? जिनेन्द्र का स्मरण कौन कर सकता है ? मैं स्वयं भगवान परिपूर्ण परमात्मा मैं स्वयं हूँ; मेरे स्वभाव में पूर्णानन्द और पूर्ण निर्दोषता पड़ी है - ऐसा जिसे श्रद्धा में, धारणा में पहले आया हो, वह स्मरण कर सकता है। क्या कहा ?
जिसे जिसका प्रेम हो, वह उसका स्मरण करता है, है ? विवाह के समय में भी (ऐसा बोलते हैं) - यह एक बहिन नहीं आयी, बड़ी बहिन नहीं पहुँची... ऐसा विवाह का प्रसंग, वे नहीं पहुँचे, भानेज नहीं पहुँचे – ऐसे उसकी महिलाएँ करें । हैं? ऐसा जिसका प्रेम है, उसे याद करते हैं; तो पहले आत्मा शुद्ध परिपूर्ण अखण्ड परमात्मा का स्वरूप, वही मेरा स्वरूप है - ऐसा जिसे निर्णय में प्रेम जगा हो, वह उसे बारम्बार स्मरण करता है। समझ में आया ? बात जरा ऐसी है, भाई !
इसका अर्थ यह कि आत्मा जिनेन्द्रस्वरूप है । जिनेन्द्र की पर्याय होती है न ? जिनेन्द्र, वे पर्यायरूप से - अवस्थारूप से पूर्ण हुए हैं। वह सिद्ध कहो या अरहन्त कहो । अब, वह दशा पूर्ण निर्दोष हुई, वह परमात्मा, आत्मा की दशा है; तो वह आत्मा की पूर्ण अनन्त गुण की निर्मलदशा आयी कहाँ से ? वह आत्मा में से आयी । किसी राग की क्रिया से, संयोग के साधन से नहीं आयी – ऐसा जिसने निर्णय किया कि ऐसे परमात्मा होते हैं, उसे निर्णय ऐसा आता है कि मैं स्वयं वस्तुपने परमात्मा हूँ। समझ में आया ?
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मेरा स्वरूप ही वीतरागबिम्ब है । वस्तु में सदोषता का अंश नहीं, अपूर्णता नहीं ऐसी मेरी चीज है, चीज है, वस्तु है । जिसने ऐसा निर्णय करके ज्ञान में धारणा, ज्ञान में धारणा (की), यह अनुभव करके यह चीज ऐसी है - ऐसा जिसका ज्ञान करके धारणा की हो, उसे बारम्बार स्मरण में आता है। समझ में आया ?
देखो न! यह संसार का उछाला आता है या नहीं ? कमाने का, भोग का, का, क्योंकि अज्ञान में - मूढ़ता में उसका प्रेम है। बारम्बार ( याद करता है)
अब उसमें दुःख का.... चार गति में भटकना ।
मुमुक्षु - अभी तो मजा है न ?
उत्तर – धूल में भी मजा नहीं, अभी दुःखी है । कषाय के, राग के और कषाय के
प्रतिष्ठा