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गाथा-१९
है। समझ में आया? संयोगों का संग्रह करूँ या मैं राग को रखू - यह सब विकारीभाव, यह विकार का स्मरण है।
मुमुक्षु - निमित्त को ढूँढना यह (विकार का स्मरण)?
उत्तर – संग्रह करना, उन्हें एकत्रित करूँ, मुझे कुछ लाभ मिले – यह तो विकार का स्मरण है। इसमें कहाँ निमित्त था? समझ में आया? और पुण्य-पाप का राग आवे, उसके स्मरण का अर्थ कि सदोषता का स्मरण करना। इसमें तो जिनेन्द्र से विरुद्ध विकारभाव का स्मरण किया है। यह तो संसार अनादि का है, वही है।
मुमुक्षु - उसके शुभभाव से तो क्षायिक सम्यग्दर्शन होता है।
उत्तर – धूल में भी नहीं होता, अब उसे बेचारे को क्या कहना? उसकी लाईन अभी ऐसी हो गयी है। ओ...हो... ! बड़ी जवाबदारी होती है। जीव कितनी जवाबदारी ओढ़ता है, देखो न ! ओ...हो...हो...! देखो न, कल आया था न? मैं तीर्थंकर हूँ, तीर्थंकर.... धर्म का... है?
मुमुक्षु – बागी....
उत्तर – बागी क्या किन्तु पूरा विरोधी। ओ...हो...हो...! बोलता था – मुझे नया धर्म (चलाना है)। पूरी दुनिया में तो धर्म है, उससे कुछ नया निकालूँ। इतना दशा गुलाँट मार डालती है जीव को। मैंने कहा – यह थोड़ा पुण्य है, वह जल जाएगा, हाँ! आहा...हा...! परन्तु कैसे सूझे? भाई! शरीर कुछ ठीक हो, वाणी का थोड़ा जोर हो, उघाड़ में कुछ वीर्य और ज्ञान का क्षयोपशम दिखता हो तो कहे, मैं ही परमेश्वर हूँ, परमेश्वर दूसरा कौन? ऐसा। दूसरे सर्वज्ञ परमेश्वर और जिनेन्द्र हैं, उनका स्वीकार करे कहाँ से? पूर्ण सर्वज्ञ परमेश्वर जगत में हैं, वीतरागपर्याय को प्राप्त परमात्मा हैं, उनका – उस सत्ता का स्वीकार किस प्रकार करना? हमारे तो यह राग और यह क्रिया, बस! दूसरे को जिमाना, यह करना, वह करना.... यह सब हमारा धर्म, जाओ! आहा....हा...!
यहाँ कहते हैं, भाई! जिस किसी जीव को सुख होना हो, अर्थात् स्वतन्त्र होना हो तो उसे तो जिनेन्द्र का स्मरण करना, अर्थात् जिनेन्द्र-समान मेरा स्वभाव है – उसका स्मरण करना। वह स्मरण कब कर सकता है? पहले निर्णय और धारणा की होवे तो।क्या