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वीर संवत २४९२ ज्येष्ठ कृष्ण ११, गाथा १९ से २०
मंगलवार, दिनाङ्क १४-०६-१९६६ प्रवचन नं. ८
योगसार शास्त्र है। योगसार अर्थात् क्या ? योगसार है न ? आत्मा का हित जिसमें से प्रगट हो - ऐसा आत्मा, उसके अन्दर की एकाग्रता का भाव, उसे यहाँ योगसार कहते हैं। समझ में आया ? आत्मा वस्तु है, उसकी एकाग्रता, वस्तु के स्वभाव में एकाग्रता, उसे यहाँ योग कहते हैं। योग का यह सार है कि वीतरागता प्रगट करना और वीतरागता प्रगट करके पूर्ण आनन्द मुक्तिरूपी दशा प्राप्त हो - ऐसे भाव को योगसार कहते हैं। समझ में आया ?
जिण सुमिरहु जिण चिंतबहु जिण झायहु सुमणेण । सो झाहंतह परमपउ लब्भइ एक्कखणेण ॥१९॥
शुद्धभाव से जिनेन्द्र का स्मरण करो.... अर्थात् क्या ? जिनेन्द्र अर्थात् वीतराग परमात्मा, जो पूर्ण सिद्धभगवान हो गये - ऐसा ही यह आत्मा, जिनेन्द्रस्वरूप है । जिनेन्द्र का स्मरण करना अर्थात् ? उस वीतरागस्वरूप पूर्णपद की प्राप्ति में पहुँच गये - ऐसा ही मेरा जिनेन्द्र का अन्तरस्वरूप है। यदि ऐसा स्वरूप न होवे तो पर्याय में जिनेन्द्रता, वीतरागता, पूर्ण निर्दोषता (जो) परमात्मा ने प्राप्त की, वह कहाँ से आयी ?
मुमुक्षु - ऐसा विचार करना है ?
उत्तर - भटकना न होवे तो विचार करना । हैं ? आहा... हा... !
कहते हैं, शुद्धभाव से .... अर्थात् मैं एक आत्मा, वीतरागी - रागरहित की दशा द्वारा भगवान आत्मा का स्मरण करता हूँ - इसका नाम जिनेन्द्र का स्मरण है। समझ में आया ? निमित्त का संग्रह या राग का आश्रय, वह जिनेन्द्र का स्मरण नहीं; वह विकार का स्मरण