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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) १३७ आदर किया है, उसमें बारम्बार स्थिरता की निर्विकल्पता, ध्यान भी उसे आता है क्योंकि वह प्रयोग है । सामायिक में.... यह सामायिक लोगों की नहीं, हाँ! स्वरूप शुद्ध है – ऐसा अनुभव होकर दृष्टि-ज्ञान हुआ तो सामायिक में प्रयोग करता है कि मैं परमात्मा हूँ तो पर्याय में उपयोग में रह सकता है या नहीं? उसकी अजमाईश और प्रयोग का नाम सामायिक है और वह प्रतिदिन की; और पन्द्रह दिन में महीने में प्रौषध एकदम चौबीस घण्टे में प्रयोग करे कि आत्मा वहाँ रह सकता है या नहीं? अन्दर स्वरूप में कितना (रह सकता है)? इसकी अजमाईश के प्रयोग को प्रौषध कहते हैं। ए... भगवानभाई ! हैं? यह बात है। सामायिक, प्रौषध और अन्त में संल्लेखना। यह बाद में देह के त्याग के काल में निर्विकल्प में - आनन्द में मैं कहाँ रह सकता हूँ? कितना भव के अभाव के काल में भव के अभाव की चीज में स्थिरता कितनी रहती है ? इतना प्रयोग करने को समाधिमरण कहते हैं। समझ में आया? आज तो सब गृहस्थाश्रम का आया, हाँ! आहा...हा...! ए... बज्जूभाई! वे लोग चिल्लाहट मचाते हैं इसलिए। गिहिवावार परहिआ हेयाहेउ मुणंति प्रभु! तू कहाँ खो गया है कि जिससे तुझे हाथ न आवे? आहा...हा.. ! भगवान पूरा आत्मा, चैतन्य के तेज के पूर के नूर से भरपूर - ऐसा चैतन्य तत्त्व वह कहाँ गया है, प्रभु! कि तेरी नजर वहाँ नहीं पड़ती? नजर वहाँ पड़ने पर उस चैतन्य के पूर का आदर होने पर उसे सम्यग्दर्शन और ज्ञान होता है, उस काल में गृहस्थाश्रम में यह दया, दान, व्रतादि के परिणाम उत्पन्न हों, उसका उस दृष्टि में त्याग वर्तता है। समझ में आया? ___धर्मी जीव ने आत्मा के शुद्ध परमानन्द के आदर में, राग होता होने पर भी स्वभाव में अविद्यमान कहा है। अज्ञानी ने राग और पुण्य के आदर में भगवान विद्यमान त्रिकालनाथ विराजमान है, उसे अविद्यमान किया है। आहा...हा...! कहो, मनसुखभाई ! कहो, अब गृहस्थाश्रम में धर्म हो सकता है या नहीं? या त्यागी होवे, बाबा होवे तब होता है ? अरे...! तुझे पता नहीं है, आत्मा बाबा ही है। उसके स्वरूप में एक भी रजकण कहाँ प्रविष्ट हो गया है? एक भी रजकण.... फिर यह तो राग की पर्याय है, परन्तु एक रजकण शरीर, वाणी, मन का कोई रजकण आत्मा में है ? रजकण आत्मारूप हुआ है? और आत्मा चाहे जितना
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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