SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३८ गाथा-१८ प्रयत्न करे तो रजकण को आत्मारूप कर सकता है? कहो, और रजकण चाहे जितने अन्दर पलटें तो आत्मारूप हो सकते हैं ? अब रहा राग, अब रहा अन्दर पुण्य-पाप का राग - वह तो कृत्रिम मैल, क्षणिक मैल है। इस पूर्णानन्द में वह मैल प्रविष्ट हो जाता है और निर्मलानन्द भगवान उस मैलरूप हो जाता है ? समझ में आया? शुभ-अशुभ राग जो है, वे दोनों मैल हैं । दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा, यात्रा का भाव शुभराग, वह मैल है । हिंसा, झूठ, चोरी, विषय-भोग, वह अशुभरागरूपी मैल है। यह भगवान, उस मैल के पीछे निर्मलानन्द प्रभु विराजता है। वह निर्मलानन्द का नाथ इस मैलरूप होता है ? और मैल का कण उस निर्मलानन्द, पूर्णानन्द में प्रविष्ट हो जाता है ? आहा...हा...! ए... रतिभाई ! ऐसे के ऐसे गाड़ी हाँक रखी है, अंधेरे... अंधेरे... क्या आत्मा? क्या मार्ग? क्या करना? क्या छोड़ना? कुछ विवेक नहीं और कहता है (कि) हम कुछ धर्म करते हैं, धूल में भी धर्म नहीं है। अब क्या कहते हैं ? लहु णिव्वाणु लहंति यहाँ तो अभी गृहस्थाश्रम का वजन देते हैं। यहाँ गृहस्थाश्रम की बात चलती है न? गिहिवावार परट्ठिआ हेयाहेउ मुणंति। अणुदिणु झायहि देउ जिणु लहु णिव्वाणु लहंति॥ अल्प काल में इस गृहस्थाश्रम में रहनेवाला आत्मज्ञानी-धर्मी आत्मा के उपादेय को जाननेवाला, रागादि की हेयता को जाननेवाला अल्पकाल में केवलज्ञानरूपी निर्वाण को प्राप्त करेगा। गृहस्थाश्रम में रहनेवाला करेगा – ऐसा कहते हैं । आहा...हा...! हैं ? कहो, समझ में आया? यह १८ वीं (गाथा पूर्ण) हुई। एक 'तप' का शब्द लेना है। वे छह बोल हैं न? छह हैं न? श्रावक के कर्तव्य – देव पूजा, गुरु भक्ति, स्वाध्याय, संयम, और तप। इसमें स्वाध्याय में तत्त्वज्ञान पूर्ण आध्यात्मिक शास्त्र पढ़ना.... यह लिखा है और तप में प्रातः काल और सन्ध्या काल थोड़े समय तक आत्मध्यान का अभ्यास करना.... उसे तप कहा जाता है । गृहस्थाश्रम में तप का कर्तव्य.... गृहस्थाश्रम में तप का कर्तव्य अर्थात् क्या? समझ में आया? गृहस्थाश्रम में श्रावक के लिये सम्यक्त्वी जीव को षट्कर्म के शुभराग भाव हमेशा आते हैं - ऐसा वहाँ शास्त्र में वर्णन है। देव पूजा, गुरु सेवा... समझ में आया? स्वाध्याय, संयम,
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy