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________________ गाथा - १८ १३६ जिस भाव से पूजा-भक्ति होती है, उस भाव को भी त्यागबुद्धि से देखता है। आदरबुद्धि नहीं देखता । समझ में आया ? आहा... हा...! लो, भाई ! बहुत समय हो गया, हाँ ! इतने में चालीस मिनट हुए। यहाँ तो कहते हैं, प्रभु ! तू है या नहीं ? है तो कितना ? अनन्त गुण का समुद्र है, ज्ञानस्वरूप से भरपूर है, तू आनन्द का कन्द है, तू वीर्य का पिण्ड है, तू शान्ति का सागर है, अनन्त पुरुषार्थ के वीर्य से भरपूर पदार्थ है, स्वच्छता का धाम है, प्रभुत्व के परमेश्वर का अनेक ऐसे अनन्त गुण में एक-एक गुण में प्रभुता से भरा हुआ वह प्रभु तू है । समझ में आया? ऐसे प्रभुत्व से भरपूर भगवान को जिसने गृहस्थाश्रम में रहने पर भी, श्रद्धा - ज्ञान में स्वीकार किया, वह अनन्त काल से जिसका त्याग वर्तता था, उसे ग्रहण किया और अनन्त काल से रागादि, पुण्यादि परिणाम को ग्रहण करने योग्य मानता था, उसके त्याग में प्रवर्ता । आहा... हा...! समझ में आया ? अणुदिणु झा फिर झायहि शब्द है न ? जिनेन्द्रदेव का ध्यान करता है अर्थात् ? शुद्धात्मा की श्रद्धा, ज्ञान तो निरन्तर है परन्तु किसी समय ध्यान में भी अन्दर स्थिर हो जाता है। देखो, यह गृहस्थी को ध्यान कहा । अणुदिणु झायहि दूसरे कहते हैं, गृहस्थ को (ध्यान) नहीं होता। यहाँ देखो ( क्या कहते हैं ) ? गिहिवावार परट्ठिआ याहेउ मुति । अणुदिणुझायहि रात-दिन उसकी परिणति शुद्ध वर्तती होती है। शुद्ध आत्मा, पूर्णानन्द का आत्मा वह भगवानस्वरूप प्रभु, उसकी श्रद्धा, ज्ञान की शुद्धपरिणति अर्थात् अवस्था कायम वर्तती है और किसी समय ध्यान भी निर्विकल्प हो जाता है, गृहस्थाश्रम में रहने पर भी.... आहा... हा...! समझ में आया ? भगवान आत्मा गृहस्थाश्रम में भी कहाँ आत्मा फटकर गृहस्थाश्रम में विकार में हो गया है ? गृहस्थाश्रम में रहनेवाला आत्मा कहाँ जड़ और शरीररूप हो गया है ? तो जिस रूप हुआ नहीं, उसका त्याग क्या करना ? अब जरा रागरूप पर्याय में विकाररूप हुआ है, उस विकार से (भिन्न) त्रिकालस्वभाव की दृष्टि होने पर (वह) विकार भी मैं नहीं हूँ - ऐसे दृष्टि होने पर उसमें विकार का दृष्टि में त्याग वर्तता है। समझ में आया ? और उसे ध्यान वर्तता है। गृहस्थाश्रम में भी ध्यान ( वर्तता है) । जिसे लक्ष्य में लिया है, जिसका
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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