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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
बाहर में धूल भी लाभ नहीं है । कहाँ लाभ था ? समझ में आया ? पाँच-पचास लाख हुए, दो करोड़ -पाँच करोड़ हुए - उसमें आत्मा को क्या ? वह तो जड़ है, वे कहाँ इसकी आत्मा में आ गये हैं ? मुझे मिले हैं- ऐसी ममता का भाव, वह ममता का भाव इसके पास है और होने पर भी समता का पिण्ड चैतन्य एक ओर है । अकेला वीतरागी भाव... समता-वीतरागी अकषायस्वभावस्वरूप आत्मा है। कहते हैं कि ऐसी ममता के काल में भी समता का पिण्ड चला गया है ? बस ! तेरा स्वीकार यहाँ चाहिए और उसका अस्वीकार चाहिए। समझ में आया ?
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अदि जिणु देउ ज्ञायहि देखो ! और रात-दिन जिनेन्द्रदेव का ध्यान करता है। जिनेन्द्र का अर्थ वीतराग । उस वीतरागभाव का ध्यान ( करता है ) । अन्दर उसकी लगन लगी है। गृहस्थाश्रम में जिनेन्द्र अर्थात् वीतराग आत्मा... वीतराग भगवान और आत्मा में कुछ फर्क वस्तु में नहीं है - ऐसा सम्यक्त्वी गृहस्थाश्रम में, धन्धे में, हजारों रानियों के वृन्द में पड़ा 'हो... समझ में आया ? तथापि 'अणुदिणु' और रात - दिन जिनेन्द्रदेव का ध्यान करता है। वीतराग... वीतराग... उसके आदर करने में स्वभाव में शुद्धता... शुद्धता... शुद्धता ... आदरणीय है; अशुद्धता आदरणीय नहीं है। ऐसा न होवे तो सम्यग्दर्शन और सम्यक्ज्ञान भी नहीं होता । सम्यग्दर्शन, ज्ञान में ऐसा होवे तो धर्म हो सकता है - ऐसा कहते हैं । समझ में आया ?
साधन भी अपना अपने में है। ढूंढ़ने जाना पड़े ऐसा है ? कि अब इसका - मोक्ष का उपाय क्या है ? उपाय कौन ? तू तेरे सन्मुख देख और उसमें स्थिर हो, वह उपाय है । समझ में आया ? परन्तु बात यह है कि इसे महिमा नहीं आती है। इसे कुछ बाहर का यह करूँ और वह करूँ और यह करूँ, यह हो और यह हो और यह हो.... जो इसमें नहीं है, वह होवे तो धर्मलाभ होता है। यह देखो न ! हैं ? आहा... हा... ! पैसा-लक्ष्मी खर्च करें, दहाड़ा करें, मन्दिर बनायें, रथयात्रा निकालें, पाँच-दस लाख प्रभावना करें तो अन्दर धर्म हो... परन्तु यह चीज तो पर है, उसमें कदाचित् तेरा शुभराग हुआ तो वह शुभ (भी) पर है, वह आत्मा में नहीं है। इसलिए पर को पररूप से - हेयरूप से जाने बिना उपादेयरूप चिदानन्द का ज्ञान इसे यथार्थ नहीं हो सकता और उपादेयरूप से इसे आदरणीय जाना,