________________
गाथा - १८
१३४
रागादि हेयरूप से वर्ते, फिर उसमें लाभ का कारण कहे तो वह तो नुकसान का कारण शुभ-अशुभभाव होता है वह नुकसान का कारण है। समझ में आया ? इसमें समझ में आया ?
यह रोटी अकेली हो, तब तो फिर खा जायेंगे, तो कल कहाँ से लाना ? परन्तु यह खजाना कम हो - ऐसा नहीं है; ऐसा खजाना तेरे पास है, यह कहते हैं। समझ में आया ?
आहा... हा...!
गृहस्थाश्रम में एकदेश, एक भागरूप तो साधन हो सकता है न ? बड़ा भाग साधन मुनि करते हैं। बड़े भाग का साधन मुनि करते हैं । मुनि अर्थात् यह बाहर के त्यागी वे मुनि नहीं हैं, कहते हैं । अन्तर के स्वरूप में शुद्ध चिदानन्द का भान होकर, विशेष स्थिर हो अन्दर, उग्र आनन्द को वेदन करे, बड़ा भाग - साधन वह करे। यह बाह्य क्रियाकाण्डी है, वह तो साधु है ही नहीं। समझ में आया ? अन्तर में आत्मा शुद्ध आनन्दकन्द का पूर्णानन्द का आदर करके उसमें विशेष लीनता करे और बिल्कुल राग का अत्यन्त अभाव (हुआ हो ) - ऐसी स्वभाव की दशा और क्रिया मोक्ष के मार्ग का भाग कही जाती है। आहा... हा...! बड़ा भाग वह लेती है परन्तु छोटा भाग इसे मिलता है - ऐसा है या नहीं ? शशीभाई ! परन्तु यह भी अभी पता नहीं है... बाहर से फुरसत में बैठे हों, निवृत्त हो तो आहा...हा... ! देखो न ! बेचारे कैसे (त्यागी हैं) ? परन्तु वे सब भटकनेवाले मिथ्यादृष्टि हैं, तुझे पता नहीं है। यह देह की क्रिया मैं करता हूँ, यह रागादि - दया, भाव, पुण्य के, भक्ति के भाव आते हैं और मुझे धर्म है - ऐसा माननेवाला अनन्त वीतरागी परमेश्वर आत्मा का अनादर करता है । उसे त्याग एक अंश का भी नहीं है। समझ में आया ? रतनलालजी ! आहा... हा...!
—
-
जहाँ दृष्टि में अकेला चैतन्य प्रभु पूर्णानन्द का नाथ जहाँ आदरणीय में पड़ा है, उसे पूरा संसार-उदयभाव दृष्टि में त्यागरूप वर्तता है। वह बड़ा त्यागी हुआ... मिथ्यादर्शन का त्याग होने पर, आत्मा का आदर होने पर उसे सबका त्याग हो गया। ऐसे त्याग के बिना बाह्य की क्रिया, त्याग-छोड़कर - अन्दर में राग का भाव, दया व्रत का आवे, उससे मेरा कल्याण होगा, उस मूढ़ ने पूरा त्याग किया है आत्मा का; राग का नहीं, पाप का नहीं;