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गाथा-१८
धन्धे के परिणाम बस, हमने किये। यह पूजा-भक्ति की, परन्तु वह तो राग है। समझ में आया? और यह पर का (कार्य) होता है, उसमें खड़ा हो वहाँ (ऐसा) लगता है कि देखो! यह मैंने ध्यान रखा, इसलिए यह हुआ। ये लोग ध्यान नहीं रखते तो नहीं होता। लो! ऐसा भी कितने ही कहते है न? हैं? यह कोई कहता था. कोई कहता था। यह तो उस समय कौन खड़ा था, उसका ज्ञान कराने के लिये कहा है। वरना कौन रजकण को बदल सकता है? समझ में आया? वे गये, कल रात्रि में गये.... आहा...हा...!
इस गाथा में क्या कहते हैं ? ऐसी गाथा एक ६५वीं आयेगी। समझ में आया? कि गृहस्थाश्रम में भी... गृहस्थाश्रम अर्थात् क्या? गृहस्थ, गृह-स्थ अर्थात् घर में रहना अर्थात् यह धन्धे के परिणाम, हिंसा के, झूठ के पाप उसमें वह पर्याय में रहा है परन्तु कोई द्रव्य है या नहीं पूरा वहाँ ? समझ में आया? पूरा तत्त्व / द्रव्य पड़ा है या नहीं? पूर्णानन्द का नाथ जिसमें अनन्त सिद्ध परमात्मा विराजमान हैं – ऐसे आत्मा को दृष्टि में उपादेय करके, यही आदरणीय है: रागादि चाहे तो पण्य. दया. दान, व्रत के. पजा. भक्ति के परिणाम हों या चाहे तो धन्धे के, हिंसा-झूठ, भोग के हों परन्तु वे दोनों परिणाम हेय हैं, छोड़ने योग्य हैं। इसलिए दृष्टि में सब राग का त्याग (होता है)। इसके आदर में राग का त्याग हो जाता है। आहा...हा...! समझ में आया?
दृष्टि में भगवान पूर्णानन्द का स्वीकार होने पर पूर्ण परमेश्वर का आदर आया। दृष्टि में पूर्ण आत्मा के स्वीकार से पूर्ण परमेश्वर को स्वीकार किया। आत्मा का सत्कार अर्थात् परमेश्वर का सत्कार किया और हेय रागादि के परिणाम होने पर भी, दृष्टि में उनका त्याग हो गया है। यह नहीं... यह नहीं... यह नहीं। इसलिए गृहस्थाश्रम में भी राग के त्यागरूप, स्वभाव के आदररूप धर्म हो सकता है। आहा...हा...! कहो चिमनभाई! इसमें सत्य है या नहीं? आहा...हा...!
देखो! यहाँ तो इन्होंने जरा लिखा है। उसका साधन भी एकमात्र अपने शुद्ध आत्मिक स्वभाव का दर्शन अथवा मनन है।लो, आत्मा का स्वभाव.... भगवान जैसा है – ऐसा अन्तर में बैठना, स्वीकार होना चाहिए न? एक ओर रागादि को लाभ माने, पैसे का लाभ माने, तो इस स्वभाव का लाभ किस प्रकार मान सकेगा?