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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
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अर्थात् तेरा। समझ में आया ? तू वस्तुपने जिनस्वरूप ही है । आहा... हा... ! समझ में आया? अब उसे, है उसे दृष्टि में न ले और जो इसमें नहीं है, ऐसे रागादि की और क्रिया को दृष्टि में ले, यह तो इसकी स्वयं की वस्तु है फिर भी भूल कर भाव करता है, यह तो इसके ज्ञान में स्वतन्त्र है । अब वस्तु जो है, एक समय में भगवान ज्ञानानन्दमूर्ति, उसका अन्तर में स्वीकार होना कि यह आत्मा वह मैं । इसका स्वीकार होने पर उसमें रागादि विकल्प उत्पन्न हों, वह उसके स्वरूप में नहीं है; इसलिए उन्हें हेयबुद्धि में रखकर, उपादेयबुद्धि में चैतन्य को रखकर दोनों के बीच का हेयाहेय का ज्ञान, विवेक कर सकता है । आहा...हा... ! हैं ? आहा... हा...! समझ में आया या नहीं ? लक्ष्मीचन्दजी ! समझ में आता है या नहीं ? क्या नहीं कर सकता ? - ऐसा कहते हैं ।
क्या तेरा आत्मा चला गया है ? सिद्ध समान सदा पद मेरो । सिद्ध समान आत्मतत्त्व है, तुझे पता नहीं। तुझे (तेरी) महिमा नहीं है, तेरे ज्ञान में उसकी महिमा नहीं आवे और फिर कहे मुझे धर्म करना है... कहाँ से धर्म करेगा ? धर्म करनेवाला धर्मी महान पदार्थ है ऐसी बुद्धि गृहस्थाश्रम में भी उपादेयरूप से हो सकती है । आहा... हा... ! इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान आत्मा गृहस्थाश्रम के धन्धे की पर्याय में हो या बाह्य क्रिया में निमित्तरूप से उपस्थित दिखता हो, तथापि उसे हेय जानकर अपने शुद्ध आनन्दस्वरूप को उपादेय जानकर, उस अन्तर के आनन्द में वर्त सकता है। अन्तर के आनन्द में वर्त सकता है. ऐसा यहाँ कहते हैं, भाई ! अन्तर के आनन्द में स्वीकार कर सकता है, राग को हेय कर सकता है और किसी काल में उस आनन्द के अनुभव में वर्त सकता है । आहा... हा...! शशीभाई ! आहा... हा... ! उपयोगरूप की बात की है ।
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मुमुक्षु - प्रत्येक समय भोगता है।
उत्तर वह तो है ही । यह तो आनन्द के वर्तन में उपयोगरूप भी आनन्द का अकेला वर्तन हो जाये – ऐसा कहते हैं । गृहस्थाश्रम में भी निर्वाण - छूटने के मार्ग में पड़ सकता है। गृहस्थाश्रम में बँधने का मार्ग एक ही है - ऐसा नहीं है । आहा... हा... ! समझ में आया इसमें ? बात यह है कि यह प्रभु आत्मा कितना है • यह बात उसके ख्याल आनी चाहिए। उलझा हुआ ही पड़ा है, अनादि से मूढ़ । यह दया, दान, व्रत के परिणाम,