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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) १२७ परमार्थ से कोई अन्तर नहीं है। उनकी पर्याय में निर्मलता है परन्तु उनकी निर्मलता जो पूर्ण है – ऐसा पूर्ण मेरा वस्तु का स्वभाव है। ऐसी अन्तर में रुचि करके, दृष्टि करके उपादेयरूप से आत्मा का स्वीकार करना। इस गृहस्थाश्रम में कहाँ आत्मा चला गया है कि स्वीकार न किया जा सके? – ऐसा कहते हैं । समझ में आया? गृहस्थाश्रम में भी आत्मा तो आत्मा है। वहाँ दूर दृष्टि थी, पर के ऊपर राग और पर (के ऊपर थी), उसे समीप में कर (कि) यह आत्मा। समझ में आया? और उसका मार्ग भी शुद्ध है । वस्तु शुद्ध है तो उसकी अन्तर में श्रद्धा, उसका ज्ञान, उसका आचरण – यह स्वभाव का साधन भी शुद्ध है। यह भी अपने समीप में से ही आता है; यह कहीं दूर (पदार्थ में से) राग में से नहीं आता। तब गृहस्थाश्रम में आत्मा को मोक्ष का मार्ग क्यों नहीं हो सकता? – ऐसा कहते हैं, अर्थात् हो सकता है। वस्तु स्वयं है, उसका ज्ञान करे और यह कीमती चीज है, दूसरी कोई चीज मेरी दृष्टि में कीमती नहीं है। राग नहीं, अल्पज्ञता नहीं, पर नहीं; यह महान पदार्थ (आत्मा) कीमती है – ऐसा जहाँ दृष्टि में उपादेयरूप से वस्तु है, उसे ग्रहण करने की, आदर करने की, उसमें स्थिरता करने जैसी यह चीज है – ऐसा जहाँ दृष्टि में उपादेय आया तो वह क्यों गृहस्थाश्रम में नहीं हो सकता? समझ में आया? और उसका साधन भी अन्दर स्वभाव है। ज्ञानानन्द चैतन्यस्वभाव.... उस अन्तर में अपने शुद्ध स्वभाव की एकाग्रता का साधन भी उसके समीप में, नजदीक में उसमें है। बजुभाई! आहा...हा...! समझ में आया? वस्तु स्वयं है। वह कहते हैं – गिहिवावार परद्विआ हेयाहेउ मुणंति - क्योंकि उपादेय चीज स्वयं है, उसे क्यों साधनरूप नहीं कर सकता? इसमें समझ में आया? भगवान आत्मा परमानन्द का रत्न है, वह परमानन्द का रत्नस्वरूप स्वयं है – ऐसा उसकी दृष्टि में जहाँ आदर आया, अर्थात् स्वभाव के साधनरूप आत्मा स्वयं है और उसके अन्तर में एकाग्र होने पर साधन की पर्याय प्रगट होवे, वह भी स्वयं के समीप में से होती है; वही कहीं राग में से, निमित्त में से नहीं होती। हैं ? मुमुक्षु - धंधार्थी को कुछ बाधा नहीं है।
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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