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गाथा-१८
उत्तर – हाँ! धंधार्थी का भाव वह नहीं। यह तो कहा – धंधार्थी का भाव हेय है परन्तु उस काल में भी धंधार्थी के जीव की शक्ति का सत्व है या नहीं? – ऐसा यहाँ तो कहते हैं । गिहिवावार इतना शब्द है न? गृहस्थाश्रम का धन्धा और व्यापार होने पर भी, एक बात । वह परट्ठिया उसमें रहा, फिर भी हेय – ऐसे गृहस्थ के व्यापार को, रागादिभाव को, अशुभभाव को, धन्धे के भाव को, इस पुण्यभाव को, इस शरीरादि की क्रिया को हेय जाने। यह नहीं, यह नहीं और आत्मा अनन्त गुण का पिण्ड, वह मैं। कहो, समझ में आया? कहो, रतिभाई ! तू है और तेरा नहीं कर सके - इसका अर्थ क्या है ? है!
हेय-उपादेय को, त्यागनेयोग्य और ग्रहण करनेयोग्य जानता है, जाने। ज्ञान में उसका विवेक वर्ते, विवेक वर्ते कि यह परमानन्दस्वरूप आत्मा (वह मैं हूँ) परन्तु उसका ख्याल पहले शास्त्र से, गुरुगम से, तीव्र जिज्ञासा.... उसका फिर उपादान (लिया)। जैसा उसका स्वरूप है, उसे पहले जानना चाहिए। जाने तब उसकी महिमा में उसकी दृष्टि जाये। ओ...हो... ! यह आत्मा, जिसमें अतीन्द्रिय आनन्द पूर्ण लबालब भरा है, जिसमें ज्ञान
और वीर्य आत्मा में पूर्णानन्द पड़ा है, पूर्ण पड़ा है। ऐसा अनन्त गुणस्वरूप भगवान आत्मा तू स्वयं है, तो गृहस्थाश्रम के व्यापार के काल के समय यह आत्मा चला गया है ? इस आत्मा को उपादेयरूप से श्रद्धा, ज्ञान में ग्रहण करे और रागादि को हेय जाने, गृहस्थाश्रम में यह आत्मा का धर्म हो सकता है। कहो, समझ में आया?
बरकत कब आती थी? उसमें बरकत कब आती थी? धूल में... यह जानता है कि जितना पुण्य होगा तद्नुसार वह आता है और यह मुझे कमाने का भाव होता है, वह पाप है, हेय है, दुःखदायक है - ऐसा जानता है। समझ में आया?
हेय जाने उसमें बरकत का लाभ अधिक कहाँ से होगा - ऐसा (कहते हैं)। लाभदायक माने तो लाभ होगा। ऐसा लाभदायक माने तो लाभ होगा... लाभदायक न माने तो लाभ किस प्रकार होगा? ऐसा होगा? मनसुखभाई! इन्हें पूछो इन्हें, यह दो बैठे हैं, देखो! काका-भतीजा, दो बैठे हैं यह । दोनों बड़ा धन्धा करते हैं वहाँ । समझ में आया?
यहाँ तो इतनी बात है कि जो शरीर, वाणी, मन की क्रियाएँ होने के काल में होती हैं, वे तो चैतन्यतत्त्व में नहीं है और चैतन्य उन्हें कर्ता नहीं है; इसलिए गृहस्थाश्रम में उसका